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(४) कितनेक लोगों का यह भी कहना है कि 'आवश्यक-कया' अरुचिकर है-उस में कोई रस नहीं आता । ऐसे लोगों को जानना चाहिये कि रुचि या अरुचि बाह्य वस्तु का धर्म नहीं है; क्योंकि कोई एक चीज़ सब के लिये रुचिकर नहीं होती। जो चीज़ एक प्रकार के लोगों के लिये रुचिकर है, वहीं दूसरे प्रकार के लोगों के लिये अरुचिकर हो जाती है । रुचि, यह अन्तःकरण का धर्म है । किसी चीज़ के विषय में उस का होना न होना उस वस्तु के ज्ञान पर अवलम्बित है । जब मनुष्य किसी वस्तु के गुणों को ठीक-ठीक जान लेता है, तब उस की उस वस्तु पर प्रबल रुचि हो जाती है । इस लिये 'आवश्यक-किया' को अरुचिकर बतलाना, यह उस के महत्त्व तथा गुणों का अज्ञानमात्र है।
जैन और अन्य-संप्रदायों का 'आवश्यक-कर्म-सन्ध्या आदि।
'आवश्यक-क्रिया' के मूल तत्त्वों को दिखाते समय यह सूचित कर दिया गया है कि सभी अन्तर्दृष्टि वाले आत्माओं का जीवन समभावमय होता है । अन्तर्दृष्टि किसी खास देश या खास काल की शृङ्खला में आवद्ध नहीं होती । उस का आविर्भाव सब देश और सब काल के आत्माओं के लिये साधारण होता है । अत एव उस को पाना तथा बढ़ाना सभी आध्यात्मिकों का ध्येय बन जाता है। प्रकृति, योग्यता और निमित्त-भेद के कारण इतना तो होना स्वाभाविक है कि किसी
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