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समय-समय पर साधारण कवि भी अपनी कवित्व-शक्ति का उपयोग नये-नये सूत्रों को रचने में करेंगे। इस का परिणाम यह होगा कि एक ही प्रदेश में जहाँ की भाषा एक है, अनेक कर्ताओं के अनेक सूत्र हो जायेंगे और विशेषता का विचार न करने वाले लोगों में से जिस के मन में जो आया, वह उसी कर्ता के सूत्रों को पढ़ने लगेगा। जिस से अप्रूव भाव वाले प्राचीन सूत्रों के साथ-साथ एकता का भी लोप हो जायगा। इस लिये धार्मिक क्रिया के सूत्र-पाठ आदि जिस-जिस भाषा में पहले से बने हुए हैं, वे उस-उस भाषा में ही पढ़े जाने चाहिये। इसी कारण वैदिक, बौद्ध आदि सभी सम्बदायों में 'संध्या' आदि नित्य-कर्म प्रचीन शास्त्रीय भाषा में ही किये जाते हैं।
यह ठीक है कि सर्व साधारण कि रुचि बढाने के लिये प्रचलित लोक-भाषा की भी कुछ कृतियाँ ऐसी होनी चाहिये, जो धार्मिक क्रिया के समय पढ़ी जायँ । इसी बात को ध्यान में रख कर लोक-रुचि के अनुसार समय-समय पर सँस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं में स्तोत्र, स्तुति, सज्झाय, स्तवन आदि बनाये हैं और उन को 'आवश्यक-क्रिया' में स्थान दिया है । इस से यह फायदा हुआ कि प्राचीन सूत्र तथा उन का महत्त्व ज्यो का त्यों बना हुआ है और प्रचलित लोक-भाषा की कृतियों से साधारण जनता की रुचि भी पुष्ट होती रहती है।
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