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( २९ ) जन तक पान हो जब तक आवश्मा निमा विशेष उपयोगी नहीं हो सकती। ऐसा कहने वाले लोग मन्त्रों की शाब्दिक महिमा तथा शास्त्रीय भाषाओं की गम्भीरता, भावमयता, ललितता आदि गुण नहीं जानते । मन्त्रों में आर्थिक महत्त्व के उपरान्त शाब्दिक महत्त्व भी रहता है, जो उन को दूसरी भाषा में परिवर्तन करने से लुप्त हो जाता है । इस लिये जो-जो मन्त्र जिस-जिस भाषा में बने हुए हों, उन को उसी भाषा में रखना ही योग्य है । मन्त्रों को छोड़ कर अन्य सूत्रों का भाव प्रचलित लोक-भाषा में उतारा जा सकता है, पर उस की वह खूबी कभी नहीं रह सकती, जो कि प्रथमकालीन भाषा में है।
'आवश्यक-क्रिया' के सूत्रों को प्रचलित लोक-भाषा में रचने से प्राचीन महत्त्व के साथ-साथ धार्मिक-क्रिया-कालीन एकता का भी लोप हो जायगा और सूत्रों की रचना भी अनवस्थित हो जायगी। अर्थात् दूर-दूर देश में रहने वाले एक धर्म के अनुयायी जब तीर्थ आदि स्थान में इकट्ठे होते हैं, तब आचार, विचार, भाषा, पहनाव आदि में भिन्नता होने पर भी वे सब धार्मिक क्रिया करते समय एक ही सूत्र पढ़ते हुए और एक ही प्रकार की विधि करते हुए पूर्ण एकता का अनुभव करते हैं । यह एकता साधारण नहीं है । उस को बनाये रखने के लिये धार्मिक क्रियाओं के सूत्रपाठ आदि को शास्त्रीय भाषा में कायम रखना बहुत ज़रूरी है। इसी तरह धार्मिक क्रियाओं के सूत्रों की रचना प्रचलित लोक-भाषा में होने लगेगी तो हर जगहास,
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