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________________ ( २४ ) अधिकारियों के लिये समान हैं । पर यहाँ जो प्रश्न है, वह अतिचार-संशोधन-रूप प्रतिक्रमण के सम्बन्ध का ही है अर्थात् अहण नहीं किये हुए व्रत-नियमों के अतिचार संशोधन के उस उस सूत्रांश को पढ़ने की और 'मिच्छा मि दुकड' आदि द्वारा अतिक्रमण करने की जो रीति प्रचलित है, उस का आधार क्या है ? इस शङ्का का समाधान इतना ही है कि अतिचार-संशोधनरूप 'प्रतिक्रमण' तो ग्रहण किये हुए व्रतों का ही करना युक्तिसंगत है और तदनुसार ही सूत्रांश पढ़ कर 'मिच्छा मि दुक्कड' आदि देना चाहिये । ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के सम्बन्ध में श्रद्धा-विपर्यास का 'प्रतिक्रमण भले ही किया जाय, पर अतिचार-संशोधन के लिये उस उस सूत्रांश को पढ़ कर 'मिच्छामि दुक्कड' आदि देने की अपेक्षा उन व्रतों के गुणों की भावना करना तथा उन व्रतों को धारण करने वाले उच्च श्रावकों को धन्यवाद दे कर गुणानुराग पुष्ट करना ही युक्ति संगत है। ___ अब प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति है, तब व्रतीअव्रती, छोटे बड़े-सभी श्रावकों में एक ही 'वंदित्तु' सूत्र के द्वारा समानरूप से. अतिचार का संशोधन करने की जो प्रथा प्रचलित है, वह केसे चल पड़ी है ? इस का खुलासा यह जान पड़ता है कि प्रथम तो सभी को "आवश्यक' सूत्र पूर्णतया याद नहीं होता । और अगर याद भी हो, जब भी साधारण अधिकारियों के लिये अकेले की अपेक्षा समुदाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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