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के सिवाय शेष पाँच 'आवश्यक' जिस रीति से करते हैं और इस के लिये जो जो सूत्र पढ़ते हैं, इस विषय में तो शङ्का को स्थान नहीं है; पर वे चौथे 'आवश्यक' को जिस प्रकार से करते हैं और उस के लिये जिस सूत्र को पढ़ते हैं, उस के विषय में शङ्का अवश्य होती है ।
किये
वह यह कि चौथा 'आवश्यक' अतिचार-संशोधन-रूप है। ग्रहण किये हुए व्रत नियमों में ही अतिचार लगते हैं । ग्रहण हुए व्रत-नियम सब के समान नहीं होते । अत एवं एक ही 'वंदित्लु' सूत्र के द्वारा सभी श्रावक - चाहे प्रती हो या अवती सम्यक्त्व, बारह व्रत तथा संलेखना के अतिचारों का जो संशोधन करते हैं, वह न्याय संगत कैसे कहा जा सकता है ? जिस ने जो व्रत ग्रहण किया हो, उस को उसी व्रत के अतिचारों का संशोधन 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि द्वारा करना चाहिये । ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के सम्बन्ध में तो उस को अतिचारसंशोधन न करके उन व्रतों के गुणों का विचार करना चाहिये और गुण-भावना द्वारा उन व्रतों के स्वीकार करने के लिये आत्म-सामर्थ्य पैदा करना चाहिये । ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के अतिचार का संशोधन यदि युक्त समझा जाय तो फिर श्रावक के लिये पञ्च 'महाव्रत' के अतिचारों का संशोधन भी युक्त मानना पड़ेगा । ग्रहण किये हुए या ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के सम्बन्ध में श्रद्धा-विपर्यास हो जाने पर 'मिच्छामि दुक्कड' आदि द्वारा उस का प्रतिक्रमण करना, यह तो सब
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