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( २५ ) में ही मिल कर 'आवश्यक' करना लाभदायक माना गया है। तीसरे जब कोई .सब से उच्च श्रावक अपने लिये सर्वथा उपयुक्त सम्पूर्ण 'वंदित्तु' सूत्र पढ़ता है, तब प्राथमिक और माध्यमिक-- सभी अधिकारियों के लिये उपयुक्त वह-वह सूत्रांश भी उस में आ ही जाता है। इन कारणों से ऐसी सामुदायिक प्रथा पड़ी' है कि एक व्यक्ति सम्पूर्ण 'वंदित्तु' सूत्र पढ़ता है और शेष श्रावक उच्च अधिकारी श्रावक का अनुकरण करके सब व्रतों के सम्बन्ध में अतिचार का संशोधन करने लग जाते हैं । इस सामुदायिक प्रथा के रूढ हो जाने के कारण जब कोई प्राथमिक या माध्यमिक श्रावक अकेला प्रतिक्रमण करता है, तब भी वह ' वंदित्तु' सूत्र को सम्पूर्ण ही पढ़ता है और ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के अतिचार का भी संशोधन करता है। ..
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... . इस प्रथा के रूढ हो जाने का एक कारण यह और भी मालूम पड़ता है कि सर्व साधारण में विवेक की यथेष्ट मात्रा नहीं होती । इस लिये — वंदित्त' सूत्र में से अपने-अपने लिये उपयुक्त सूत्राशों को चुन कर बोलना और शेष सूत्राशों को छोड़ देना, यह काम सर्व साधारण के लिये जैसा कठिन है, वैसा ही विषमता तथा गोलमाल पैदा करने वाला भी है। इस कारण यह नियम रक्खा गया है कि सूत्र अखण्डितरूप से ही १.१-"अखण्डं सूत्रं पठनीयमिति न्यायात् ।" [धर्मसंग्रह, पृष्ठ २२३ ।।
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