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परिशिष्ट :
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पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक- प्रतिक्रमण की विधि' । 'वंदित्तु' सूत्र पर्यन्त तो दैवासक-प्रतिक्रमण की विधि करे बाद खमासमण दे कर 'देवसियं आलोइय पडिक्कंता, इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खिय मुहपत्ति पडिले हुँ ?' कहे | बाद गुरु के 'पडिलेहेह' कहने पर 'इच्छं' कह कर स्वमासमण - पूर्वक मुहपति पडिलेहन करे और दो वन्दना दे | बाद जब गुरु कहे कि 'पुण्णवन्तो' 'देवासिय' की जगह 'पक्खिय', 'चउमासिय' या 'संवच्छरिय पढ़ना, छींक की जयणा करना, मधुर स्वर से पाडेक्कमण करना, खाँसना हो तो विवर-शुद्ध खाँसना और मण्डल में सावधान रहना' तब 'तहत्ति' कहे । पीछे खड़े हो कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् संबुद्धा खामणेणं अब्भुट्टिओमि अब्भिंतर पक्खियं खामेउँ ?' कहे । गुरु के 'खामेह' कहने पर 'इच्छं, खामेमि पक्खियं' कहे । और घुटने टेक कर यथाविधि पाक्षिकप्रतिक्रमण में 'पनरसण्हं दिवसाणं पनरसहं राईणं जं किंचि०;' चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण में 'चउन्हं मासाणं अठहं पक्खाणं वीसोत्तरस्यं राइंदियाणं जं किंचि०' और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'दुवालसहं मासाणं चउवीसहं पक्खाणं तिन्निसयसट्ठि राइंदियाणं जं किंचि०' कहे । गुरु जब 'मिच्छामि दुक्कडं दे, तब अगर दो साधु उचरते हों तो पाक्षिक में तीन, चातुर्मा
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१ - देवसिक प्रतिक्रमण में जहाँ-जहाँ 'देवसियं' शब्द बोला जाता है, वहाँ-वहाँ पाक्षिक-प्रतिक्रमण में 'पक्खिय' चातुर्मासिक में 'चउमासिय' और सांवत्सरिक में 'संवच्छरिय' बोलना चाहिये ।
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