SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पढ़ने की प्रथा पीछे सकारण प्रचलित हो गई है; तथापि मूर्तिपूजक-सम्प्रदाय की 'आवश्यक-क्रिया-विषयक सामाचारी में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उस में कहीं 'आवश्यकों' के सूत्रों का तथा विधि का सिलसिला अभी तक प्राचीन ही चला आता है। 'आवश्यक' किसे कहते हैं ?:-जो क्रिया अवश्य करने योग्य है, उसी को "आवश्यक" कहते हैं। 'आवश्यक-क्रिया' सब के लिये एक नहीं, वह अधिकारी भेद से जुदी-जुदी है। एक व्यक्ति जिस क्रिया को आवश्यककर्म समझ कर नित्यप्रति करता है, दूसरा उसी को आवश्यक नहीं समझता । उदाहरणार्थ--एक व्यक्ति काञ्चन-कामिनी को आवश्यक समझ कर उस की प्राप्ति के लिये अपनी सारी शक्ति खर्च कर डालता है । और दूसरा काञ्चन-कामिनी को अनावश्यक समझता है और उस के संग से बचने की कोशिश ही में अपने बुद्धि-बल का उपयोग करता है। इस लिये 'आवश्यक-क्रिया' का स्वरूप लिखने के पहले यह जना देना जरूरी है कि इस जगह किस प्रकार के अधिकारियों का आवश्यककर्म विचारा जाता है ! सामान्यरूप से शरीर-धारी प्राणियों के दो विभाग हैं:(१) बहिदृष्टि और (२) अन्तर्दृष्टि । जो अन्तर्दृष्टि हैं-जिन की दृष्टि आत्मा की ओर झुकी है अर्थात् जो सहज सुख को व्यक्त करने के विचार में तथा प्रयत्न में लगे हुए हैं, उन्हीं के 'आवश्यककर्म' का विचार इस जगह करना है । इस कथन से यह स्पष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy