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सिद्ध है कि जो जड़ में अपने को नहीं भूले हैं--जिन की दृष्टि को किसी भी जड़ वस्तु का सौन्दर्य लुभा नहीं सकता, उन का 'आवश्यक - कर्म' वही हो सकता है, जिस के द्वारा उन का आत्मा सहज सुख का अनुभव कर सके । अन्तर्दृष्टि वाले आत्मा सहज सुख का अनुभव तभी कर सकते हैं, जब कि उन के सम्यक्त्व, चेतना, चारित्र आदि गुण व्यक्त हों । इस लिये वे उस क्रिया को अपना 'आवश्यक - कर्म' समझते हैं, जो सम्यक्त्व आदि गुणों का विकास करने में सहायक हों । अत एव इस जगह संक्षेप में 'आवश्यक' की व्याख्या इतनी ही है कि ज्ञानादि गुणों को प्रकट करने के लिये जो क्रिया अवश्य करने योग्य है, वही 'आवश्यक' है ।
ऐसा 'आवश्यक' ज्ञान और क्रिया-उभय परिणाम-रूप अर्थात् उपयोगपूर्वक की जाने वाली क्रिया है । यही कर्म आत्मा को गुणों से वासित कराने वाला होने के कारण " आवासक" भी कहलाता है । वैदिकदर्शन में 'आवश्यक' समझे जाने वाले कर्मों के लिये 'नित्यकर्म' शब्द प्रसिद्ध है । जैनदर्शन में अवश्य कर्तव्य, ध्रुव, निग्रह, विशोधि, अध्ययनषट्क, वर्ग, न्याय, आराधना, मार्ग आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जो कि 'आवश्यक' शब्द के समानार्थक – पर्याय हैं ( आ० - वृत्ति, पृ० 3 ) ।
सामायिक आदि प्रत्येक 'आवश्यक' का स्वरूपः- स्थूल दृष्टि से 'आवश्यक - क्रिया' के छह विभाग-भेद किये गये हैं-- (१) सामायिक, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान ।
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