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प्रतिक्रमण सूत्र । विविध जाति के पुष्प मंगाओ, मोघर लाल गुलाब । आ०॥३॥ धूप उवेखी ने करो आरति, मुख बोलो जयकार। आ०॥४॥ हर्ष धरी आदीसर पूजो, चौमुख प्रतिमा चार। आ०॥५॥ हेत धरी भवी भावना भावो, जिम पामो भव पार । आ०॥६॥ 'सकल चंद' सेवक जिनजी का, आनंदघन उपकार। आ०॥७॥
[श्रीरत्नाकरपञ्चविंशिका । ] श्रेयःश्रियां मंगलकेलिसम !, नरेन्द्रदेवेन्द्रनताङ्घ्रिपद्म ! । सर्वज्ञ ! सर्वातिशयप्रधान !, चिरं जय ज्ञानकलानिधान॥१॥
भावार्थ-मुक्तिरूप लक्ष्मी के पवित्र लीला-मन्दिर अर्थात् मुक्ति के निवास स्थान ! राजाओं तथा इन्द्रों से पूजित ! सब अर्थात् चौंतीस अतिशयों से सहित होने के कारण सर्वोत्तम !
और ज्ञान तथा कलाओं के भण्डार ! ऐसे हे सर्वज्ञ प्रभो ! तेरी सदा जय हो ॥ १ ॥ . जगत्त्रयाधार ! कृपावतार !, दुर्वारसंसारविकारवैद्य !। श्रीवीतराग त्वयि मुग्धभावात्, विज्ञप्रभो विज्ञपयामि किश्चिन ___भावार्थ-तीनों लोक के अर्थात् सकल भव्य प्राणियों के
आलम्बनभूत : दया की साक्षात् मूर्ति ! जिन को रोकना सहल नहीं, ऐसे सांसारिक विकारों को अर्थात् काम, क्रोध आदि वासनाओं को मिटाने के लिये वैद्य के तुल्य ! ऐसे हे विशेषज्ञ वीतराग प्रभो! सरल भाव से तेरे प्रति कुछ निवेदन करता हूँ ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only "wwwajainelibrary.org