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चैत्य-वन्दन-स्तवनादि । ३५३ किं बाललीलांकलितो न बालः, पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः। तथा यथार्थ कथयामि नाथ !, निजाशयं सानुशयस्तवाग्रे॥२॥
भावार्थ--क्या, बालक बाल-क्रीडा-वश अपने माता-पिता के सामने विना कुछ सोचे-विचारे सम्भाषण नहीं करता ? अर्थात् जैसे बालक अपने माता-पिता के सन्मुख किसी तरह की शङ्का न रख कर खुले दिल से अपना भाव प्रकट कर देता है, वैसे ही हे प्रभो ! पछतावे में पड़ा हुआ मैं भी तेरे आगे अपना अभिप्राय यथार्थरूप में कहे देता हूँ ॥३॥ दत्तं न दानं परिशीलितं च, न शालि शीलं न तपोऽभितप्तम् शुभो न भावोऽप्यभवद्भवेऽस्मिन् ,विभो! मया भान्तमहो मुधैव४ ___ भावार्थ-मैं ने न तो कोई दान दिया, न सुन्दर शील अर्थात् ब्रह्मचर्य का ही पालन किया और न कोई तप : तपा, इसी तरह मुझ में कोई सुन्दर भाव भी पैदा नहीं हुआ, इस लिये हे प्रभो ! मुझे खेद है कि मैं ने संसार में विफल ही भ्रमण किया अर्थात् जन्म ले कर उस से कोई फायदा नहीं उठाया ॥४॥ दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन द॑ष्टो, दुष्टेन लोभाख्यमहोरंगण । ग्रस्तोनिमानाजगरेण माया,-जालेन बद्धोऽस्मिकथं भजे त्वाम
भावार्थ-एक तो मैं क्रोधरूप अग्नि से ही जला हुआ हूँ, तिस पर लोभरूप महान् साँप ने मुझ को डंक मारा है तथा मानरूप अजगर ने तो निगल ही लिया है, इस के उपरान्त माया के जाल में भी मैं फँसा हुआ हूँ अर्थात् चारों कषायों से लिप्त हूँ,
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