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चैत्य-वन्दन-स्तवनादि ।
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पंचमी- तप, जे नर करशे, सानिध्य करे अंबाई जी । दालत दाई अधिक, सवाई, देवी दे ठकुराई जी ।। नपगच्छ अंबर, दिनकर सरिखो, 'श्रीविजयसिंह सूरीश जी । 'वीरविजय' पंडित कविराजा, विबुध सदा सुजगीश जी!॥४॥
[ अष्टमी की स्तुति ।।
(१) मंगल आठ करी जस आगल, भाव घरी सुरराज जी। आठ जातिना, कलश भरी ने, नवरावे जिनराज जी ।। चीर जिनेश्वर, जन्म महोत्सव, करतां शिव सुख साधे जी। आठमनो तप, करतां अमघर, मंगल कमला वाधे जी॥१॥
अष्ट करम वयरी गज गंजन, अष्टापद परे बलिया जी । आठमे आठ सुरूप विचारी, मद आठे तस गलिया जी ।। अष्टमी गति जे, पहोता जिनवर, फरस आठ नहीं अंग जी। आठमनो तप करतां अमघर, नित नित वाधे रंगजी।।२।।
प्रातिहारज, आठ विराजे, समवसरण जिन राजे जी। आठमे आठसो, आगम भाखी, भवी मन संशय भांजे जी।। आठे जे प्रवचननी माता, पाले निरतिचारो जी । आठमने दिन, अष्ट प्रकारे, जीव दया चित्त धारो जी।३।
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