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चैत्य-वन्दन - स्तवनादि ।
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पारस नेमि जिन अंतर, श्रीरिषभ जिनंदा । गुर्वावली अरु बारां से, सामाचारी नंदा || उ० ॥ १०॥ सुनके वाचनी नव भावें, शिव लक्ष्मी वरंदा | निज आतमराम सरूपे, 'वल्लभ' हर्षदा ॥ उ० ॥ ११॥ [ दिवाली का स्तवन । ] जयो जगस्वामी वीर जिनंद ॥ टेर ॥ अपापा में प्रभु आये,
नगर
भवि जनको उपकार करंद ॥ ज० ॥ १ ॥ निज निरवान समयको जानी,
सालां पर प्रभु धर्म कहंद ॥ ज० ॥ २ ॥ कार्तिक वदो पंदरसको राते,
प्रातःकाल प्रभु मुक्ति लहंद ॥ ज० ॥ ३ ॥ परमातम पद छिनकेंमें लीनो,
आठ करमको दूर हरंद ॥ ज० ॥ ४ ॥ कल्याणक निर्वाण महोच्छव,
कारण मिल कर आये सुरींद ॥ ज० ॥ ५ ॥ पापा नगरी नाम कहायो,
अस्त भयो जिहाँ ज्ञान दिनंद ॥ ज० ॥ ६ ॥ नव मल्ली नव लच्छी राजा,
शांक अतिशय दिलम धरद । ज० ॥ ७ ॥ भाव उद्यांत गया अब जगसे,
द्रव्य उद्योतको दीप करंद ॥ ज० ॥ ८ ॥
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