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________________ २५६ प्रतिक्रमण सूत्र | जो हर्ष, खेद तथा अज्ञान से परे है, जो जरा मरण' से मुक्त है, जिस को देवों के, असुरकुमारों के, सुवर्णकुमारों के और नागकुमारों के स्वामियों ने आदरपूर्वक प्रणाम किया है, जो सुनीति और न्याय में कुशल है, जो अभयदाता है और मनुष्यलोक तथा स्वर्गलोक के प्राणियों ने जिस की पूजा की है, उस श्री अजितनाथ की शरण पा कर मैं सदा उस को नमन करता हूँ ॥७॥ * तं च जिणुत्तममुत्तमनित्तमसत्तधरं, अज्जत्र मद्दवखं तिविमुत्तिसमाहिनिहिं । संतिकरं पणमामि दमुत्तमतित्थयरं, संतिमुणी मम संतिसमाहिवरं दिसउ ॥ ८ ॥ (सोवाणयं) अन्वयार्थ 'उत्तम' श्रेष्ठ तथा 'नित्तम' तमोगुणरहित [ऐसे) 'सत्त' यज्ञ को या पराक्रम को 'घर' धारण करने वाले, 'अज्जव' सरलता, 'मद्दव' मृदुता, 'खंति' क्षमा, 'विमुत्ति' निलोभता और 'समाहि' समाधि के 'निहिं' निधि, 'च' और 'दमुत्तमतित्थयरं ' दमन में श्रेष्ठ तथा तीर्थङ्कर, [ ऐसे ] 'संतिकरं ' शान्तिकारक 'तं' उस 'जिणुत्तमम्' जिनवर को 'पणमामि' [मैं ] प्रणाम करता हूँ, 'संतिमुणी' शान्तिनाथ मुनि 'मम' मुझ को 'संति' शान्ति तथा 'समाहिं' समाधि का 'वरं' वर 'दिसउ' देवे ॥ ८ ॥ तं च जिनोत्तममुत्तमनिस्तमस्सत्रधर, मार्जनमार्दवक्षान्तिविमुक्तिसमाधिनिधिम् । शान्तिकरं प्रणमामि दमोत्तमतीर्थकरं, शान्तिमुनिर्मम शान्तिसमाधिवरं दिशतु ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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