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________________ प्रतिक्रमण सूत्र । सुरासुरनराधीश, - मयूरनववारिदम् । कर्मद्रन्मूल्मने हस्ति, - मल्लं मल्लीमभिष्टुमः ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ - 'सुरासुरनर' सुर, असुर तथा मनुष्यों के 'अधीश' स्वामीरूप 'मयूर' मोरों के लिये 'नव' नये 'वारिदम् मेघ के समान [ और ] 'कर्म' कर्मरूप 'द्र' वृक्षों को 'उन्मूलने' निर्मूल करने के लिये 'हस्तिमलं' ऐरावत हाथी के समान [ ऐसे ] 'मल्लीम् ' मल्लीनाथ स्वामी की 'अभिष्टम:' [हम ] स्तुति करते हैं । २१ । { भावार्थ - जिस भगवान् को देख कर सुरपति, असुरपति तथा नरपति उसी तरह खुश हुए, जिस तरह नये मेघ को देख कर मोर खुश होते हैं । और जो भगवान् कर्म को निर्मूल करने के लिये वैसा ही समर्थ है, जैसा कि पेड़ों को उखाड़ फेंकने में ऐरावत हाथी । ऐसे उस मल्लीनाथ भगवान् की हम स्तुति करते हैं ॥२१॥ २४२ जगन्महामोहनिद्रा, - प्रत्यूषसमयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य, देशनावचनं स्तुमः ||२२|| अन्वयार्थ - 'जगत्' दुनियाँ की 'महामोह' महान् अज्ञानरूप 'निद्रा' निद्रा के लिये 'प्रत्यूषसमयोपमम् प्रातःकाल के समान [ ऐसे ] 'मुनिसुव्रतनाथस्य' मुनिसुव्रत स्वामी के 'देशना - वचनं' उपदेश-वचन की 'स्तुमः ' [हम ] स्तुति करते हैं ॥ २२ ॥ भावार्थ - श्रीमुनिसुव्रत स्वामी का उपदेश-वचन, जो जगत् की महामोहरूप निद्रा को दूर करने के लिये प्रातः काल के समान है, उस की हम स्तुति करते हैं ॥ २२॥ ". Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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