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सकलार्हत् स्तोत्र । २४३ लुठन्तो नमतां मूर्ध्नि, निर्मलीकारकारणम् । वारिप्लवा इव नमः, पान्तु पादनखांशवः ॥२३॥
अन्वयार्थ -- ‘नमतां' नमन करने वालों के मूनि मस्तक पर 'लुठन्तः' गिरने वाली [और उनको] 'निर्मलीकार' पवित्र बनाने में कारणम्' कारणभूत [अत एव] वारिप्लवा इव' जल के प्रवाहों के सदृश ऐसी] 'नमेः' नमिनाथ स्वामी के 'पादनखांशवः' पैरों के नखों की किरणें 'पान्तु' रक्षण करें ॥२३॥
भावार्थ--श्रीनमिनाथ भगवान् के पैरों के नखों की किरणें, जो झुक कर प्रणाम करने वालों के सिर पर जल के प्रवाह की तरह गिरती और उन्हें पवित्र बनाती हैं, वे तुम्हारी रक्षा करें ॥२३॥
यदुवंशसमुद्रेन्दुः, कर्मकक्षहुताशनः । अरिष्टनेमिभगवान्, भूयाद्वोरिष्टनाशनः ॥२४॥
अन्वयार्थ–'यदुवंश' यादव वंशरूप 'समुद्र' समुद्र के लिये इन्दुः' चन्द्र के समान [और] 'कर्म' कर्मरूप 'कक्ष' वन के लिये 'हुताशनः' अमि के समान 'अरिष्टनेमिः भगवान् श्रीनेमिनाथ प्रभु 'वः' तुम्हारे ‘अरिष्ट' अमंगल के 'नाशनः, नाशकारी 'भूयात्' हो ॥२४॥
भावार्थ-जिस भगवान् के प्रभाव से यादव वंश की वृद्धि वैसे ही हुई, जैसे चन्द्र के प्रभाव से समुद्र की वृद्धि होती है, और जिस ने कर्म को वैसे ही जला दिया जैसे अमि वन
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