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सकलार्हत् स्तोत्र । २४१ श्रीकुन्थुनाथो भगवान्, सनाथोऽतिशयाईभिः । सुरासुरनृनाथाना, मेकनाथोऽस्तु वः श्रिये ॥ १९॥
अन्वयार्थ- -'अतिशय' अतिशयों की 'ऋद्धिभिः' संपत्तियों के 'सनाथ' सहित [ और ] 'सुरासुरन्' सुर, असुर तथा मनुष्यों के 'नाथानाम्' स्वामियों का 'एक' असाधारण 'नाथ' स्वामी [ ऐसा ] 'श्रीकुन्थुनाथो भगवान्। श्रीकुन्थुनाथ प्रभु 'वः' तुम्हारी श्रिय' संपत्ति के लिये 'अस्तु हो ॥ १९ ॥
भावार्थ -जिस को चौंतीस अतिशय की संपत्ति प्राप्त है, और जो देवेन्द्र, दानवेन्द्र तथा नरेन्द्र का नाथ है, वह श्रीकुन्थुनाथ भगवान् तुम्हारे कल्याण के लिये हो ॥ १९ ॥
अरनाथस्तु भगवाँ, चतुर्थारनभोरविः ।।
चतुर्थपुरुषार्थश्री,-बिलासं वितनोतु वः ॥ २० ॥ __ अन्वयार्थ- चतुर्थ' चोथे अर आरारूप 'नमः' आकाश में रविः' सूर्य समान [ऐसा] 'अरनाथः तु भगवान् श्रीअरनाथ प्रभु यः' तुम्हारे चतुर्थपुरुषार्थ' चौथे पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष की 'श्री' लक्ष्मी के 'विलास विलास को 'वितनोतु विस्तृत करे ॥२०॥
भावार्थ-- श्रीअरनाथ भगवान् चौथे आरे' में उसी तरह शोभायमान हो रहे थे, जिस तरह सूर्य आकाश में शोभायमान है, वह भगवान् तुम्हें मोक्ष दे ॥२०॥
१-कालचक्र के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ऐसे मुख्य दो हिस्से हैं । प्रत्येक हिस्से के छह छह भाग माने गये हैं । ये ही भाग 'आर' कहलाते हैं।
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