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प्रतिक्रमण सूत्र ।
णम्' समान [ और ] 'चतुर्धा' चार प्रकार के 'धर्म' धर्म का 'देष्टार' उपदेश करने वाले [ऐसे ] 'धर्मनाथम्। धर्मनाथ स्वामी की उपास्महे' [हम उपासना करते हैं ॥ १७ ॥
भावार्थ-जिस भगवान् से सभी प्राणी अपनी वाञ्छित वस्तुएँ सहज ही में उसी तरह प्राप्त करते हैं, जिस तरह कि कल्पवृक्ष से । और जो भगवान् दान, शील, तप तथा भाव रूप चार प्रकार के धर्म का उपदेशक है. उस श्रीधर्मनाथ प्रभु की हम उपासना करते हैं ॥ १७ ॥
सुधासोदरवाग्ज्योत्स्ना, -निर्मलीकृतदिङ्मुखः । मृगलक्ष्मा तमःशान्त्यै, शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः ॥१८॥
अन्वयार्थ—'सुधा' अमृत 'सोदर' तुल्य 'वाग्' वाणीरूप 'ज्योत्स्ना' चाँदनी से निर्मलीकृतदिङ्मुखः' जिस ने दिशाओं के मुखों को निर्मल किया है [ और ] ' मृगलक्ष्मा' जिसको हिरन का लाञ्छन है [ वह ] ' शान्तिनाथजिनः' शान्तिनाथ जिनेश्वर 'वः' तुम्हारे 'तमः' तमोगुण-- अज्ञान की 'शान्त्य' शान्ति के लिये 'अस्तु' हो ॥ १८ ॥
भावार्थ--जिस भगवान् की अमृत तुल्य वाणी सुन कर सुनने वालों के मुख उसी तरह प्रसन्न हुए, जिस तरह कि चाँदनी से दिशाएँ प्रसन्न होती हैं और जिस के हिरन का चित्र है, वह श्रीशान्तिनाथ प्रभु तुम्हारे पाप को वैसे ही दूर करे, जैसे चन्द्रमा अन्धकार को दूर करता है ॥ १८ ॥
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