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सकलार्हत् स्तोत्र ।
२३९ कारण [ अत एव ] ' कतकक्षोद' निर्मली नामक वनस्पति के चूर्ण के 'सोदरा:' समान [ ऐसे ] 'विमलस्वामिनः' श्रीविमलनाथ के 'वाचः ' उपदेश - वचन 'जयन्ति' जय पा रहे हैं ॥ १५ ॥
भावार्थ - जैसे निर्मली वनस्पति का चूर्ण, जल को निर्मल बनाता है, वैसे ही विमलनाथ स्वामी की वाणी तीन जगत् के अन्तःकरण को पवित्र बनाती है; ऐसो लोकोत्तर वाणी सर्वत्र जय पा रही है ॥ १५॥
स्वयंभूरमणस्पर्थि, करुणारसवारिणा ।
अनन्तजिदनन्तां वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ - 'अनन्तजित् श्री अनन्तनाथ स्वामी 'स्वयंभूरमणस्पर्वि' स्वयंभूरमण नामक समुद्र के साथ स्पर्धा करने वाले ऐसे 'करुणारसवारिणा' दया-रस रूप जल से 'वः' तुम को 'अनन्त' अनन्त 'सुखश्रियम् सुख-संपत्ति 'प्रयच्छतु' देवे ॥ १६ ॥
भावार्थ — जैसे स्वयंभूस्मण समुद्र का पानी अपार है, वैसे ही श्रीअनन्तनाथ प्रभु की दया भी अपार है । अपनी उस अपार दया से वह प्रभु तुम सब को अनन्त सुख-संपत्ति देवे ॥ १६॥ कल्पद्रमसधर्माण, मिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्धाधर्मदेष्टारं, धर्मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥
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अन्वयार्थ – 'शरीरिणाम् ' प्राणियों को 'इष्टप्राप्तौ' वाञ्छित वस्तु प्राप्त करने में 'कल्पद्रुम' कल्पवृक्ष के 'सधर्मा
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