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________________ २३८ प्रतिक्रमण सूत्र । लक्ष्मी का 'रमण' स्वामी है 'श्रेयांसः' वह श्रेयांसनाथ ।। 'वः' तुम्हारे श्रेयसे' कल्याण के लिये 'अस्तु' हो ॥१३॥ भावार्थ-जिस प्रकार वैद्य का दर्शन बीमारों के लिये आनन्द-दायक होता है, उसी प्रकार जिस भगवान् का दर्शन संसार के दुखों से दुःखी प्राणियों के लिये आनन्द देने वाला है और जो मोक्ष सुख को भोगने वाला है, वह श्रेयांसनाथ प्रभु तुम्हारा कल्याण करे ॥ १३ ॥ विश्वोएकारकीभूत, तीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः। सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ---विश्वोकारकीचूस जगत् पर अकार करने वाले 'तीर्थककर्मनिर्मितिः' तीर्थङ्कर नामकर्म को बाँधने वाला [ अत एव ] 'सुरासुरनरैः' देव, असुर और मनुष्यों को 'पूज्यः, पूजने योग्य [ ऐसा ] 'वासुपूज्यः' वासुपूज्य स्वामी 'वः' तुम्हें 'पुनातु' पवित्र करे ॥ १४ ॥ ___ भावार्थ--जिस ने जगत् के उपकारक ऐसे तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया और जो देवों, असुरों तथा मनुष्यों को पूजने योग्य है, वह वासुपूज्य भगवान् तुम्हें पवित्र करे ॥१४॥ विमलस्वामिनो वाचः, कतकक्षोदसोदराः। जयन्ति त्रिजगच्चेतो, जलनैर्मल्यहेतवः ॥१५॥ अन्वयार्थ-'त्रिजगत्' तीन जगत् के 'चेतः' अन्तःकरणरूप 'जल' जल की 'नैर्मल्यहेतवः' निर्मलता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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