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________________ २३३ सकलार्हत् स्तोत्र । प्रतिविम्वित हुआ है, 'अजितम् अर्हन्तम्' उस अजितनाथ अरिहन्त की 'स्तुवे' [मैं] स्तुति करता हूँ ॥ ४ ॥ भावार्थ – जिस से सारा जगत् वैसे ही प्रसन्न है, जैसे कि सूर्य से कमल-वन प्रसन्न व प्रफुल्ल होता है और जिस के केवलज्ञानरूप निर्मल आयने में संपूर्ण लोक प्रतिबिम्बित है, अजितनाथ प्रभु की मैं स्तुति करता हूँ ॥ ४ ॥ उस विश्व भव्यजनाराम, कुल्यातुल्या जयन्ति ताः । देशनासमये वाचः, श्रीसंभव जगत्पतेः ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ – 'विश्व' संपूर्ण 'भव्यजन' भव्य प्राणीरूप 'आराम' उद्यान के लिये 'कुल्यातुल्या' नाली के समान [ ऐसे जो ] 'श्रीसंभवजगत्पतेः' जगत् के नाथ श्रीसंभवनाथ स्वामी के 'देशनासमये' उपदेश के समय के 'वाचः' वचन हैं 'ता:' वे 'जयन्ति' जय पा रहे हैं ॥ ५ ॥ भावार्थ -- श्रीसंभवनाथ प्रभु के उपदेश-वचन सभी भव्यों को उसी प्रकार तृप्त करते हैं, जिस प्रकार जल की नाली बगीचे को । भगवान् के इस प्रकार के वचनों की सब जगह जय हो रही है ॥ ५ ॥ अनेकान्तमताम्भोधि, समुल्लासनचन्द्रमाः । दद्यादमन्दमानन्दं भगवानभिनन्दनः || ६ || अन्वयार्थ - ' अनेकान्तमत' स्याद्वादमतरूप 'अम्भोधि' समुद्र को 'समुल्लासन' उल्लसित करने के लिये 'चन्द्रमाः ' Jain Education International For Private & Persorfal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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