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________________ १४४ प्रतिक्रमण सूत्र । 'भद्र- कल्याण-मंगल-प्रददे' सुख, शान्ति और मंगल देने वाली, 'च' तथा 'सदा' हमेशा 'साधूनां' साधुओं के 'शिवसुतुष्टिपुष्टिप्रदे' कल्याण और सन्तोष की पुष्टि करने वाली हे देवि ! 'जीयाः ' तेरी जय हो ॥ ८ ॥ भावार्थ - हे दोव ! तेरी जय हो, क्यों कि तू चतुर्विध-संघ को सुख देने वाली, उसकी बाधाओं को हरने वाली और उस का - मंगल करने वाली है तथा तू सदैव मुनियों के कल्याण, सन्तोष और धर्म - वृद्धि को करने वाली है ||८|| 1 भव्यानां कृतासिद्धे !, निर्वृतिनिर्वाणजननि ! सत्वानाम् अभयप्रदाननिरते !, नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे ! तुभ्यम् ॥ ९ ॥ अन्वयार्थ----‘भव्यानां' भव्यों को ' कृतसिद्धे!" सिद्धि देने वाली; 'निर्वृतिनिर्वाणजननि !' शान्ति और मोक्ष देने वाली, 'सत्त्वानाम्' प्राणियों को 'अभयप्रदाननिरते!' अभय-प्रदान करने में तत्पर, और 'स्वस्तिप्रदे' कल्याण देने वाली हे देवि ! ' तुभ्यम्' तुझ को 'नमोsस्तु' नमस्कार हो ||९|| भावार्थ - हे देवि ! तुझ को नमस्कार हो । तू ने भव्यों की कार्य-सिद्धि की है; तू शान्ति और मोक्ष को देने वाली है; तू प्राणिमात्र को अभय-प्रदान करने में रत है और तू कल्याणकारिणी है ||९|| भक्तानां जन्तूनां शुभावहे नित्यमुद्यते ! देवि ! सम्यग्दृष्टीनां धृति, -- रतिमतिबुद्धिप्रदानाय ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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