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________________ लघु-शान्ति स्तव । १४३ लोगों का हित 'कुरुते' करती है 'इति' इस लिये 'तं शान्तिम्' उस शान्तिनाथ भगवान् को 'नमत' तुम नमस्कार करो ॥६॥ भावार्थ- हे भव्यो ! तुम श्रीशान्तिनाथ भगवान् को नमस्कार करो । भगवान् का नाम महान् मन्त्र-वाक्य है । इस मन्त्र के उच्चारण से विजया देवी प्रसन्न होती है और प्रसन्न हो कर लोगों का हित करती है ॥६॥ भवतु नमस्ते भगवति', विजये! सुजये ! परापरैरजिते । अपराजिते! जगत्यां, जयतीति जयावहे ! भवति ॥७॥ अन्वयार्थ-.--'जगत्यां जगत् में 'जयति' जय पा रही है, 'इति' इसी कारण 'जयावहे' ! औरों को भी जय दिलाने वाली, 'परापरैः' बड़ों से तथा छोटों से 'आजिते'! आजित, 'अपराजिते' ! पराजय को अप्राप्त, 'सुजये'! सुन्दर जय वाली, 'भवति! हे श्रीमति, 'विजये! विजया 'भगवति!' देवि ! 'ते' तुझ को 'नमः' नमस्कार 'भवतु' हो ॥७॥ भावार्थ---हे श्रीमति विजया देवि ! तुझ को नमस्कार हो । तू श्रेष्ठ जय वाली है; तू छोटों बड़ों सब से अजित है; तू ने कहीं भी पराजय नहीं पाई है; जगत में तेरी जय हो रही है; इसी से तू दूसरों को भी जय दिलाने वाली है ॥७॥ सर्वस्यापि च सङ्घस्य, भद्रकल्याणमंगलप्रददे । साधूनां च सदा शिव,-सुतुष्टिपुष्टिप्रदे जीयाः ॥८॥ अन्वयार्थ-'सर्वस्यापि च सङ्घस्य' सकल संघ को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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