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लघु - शान्तिस्तव । जिनशासननिरतानां, शान्तिनतानां च जगति जनतानाम् । श्रीसम्पत्कीर्तियशो, वर्द्धनि ! जय देवि ! विजयस्व ॥ ११ ॥
अन्वयार्थ ---'भक्तानां जन्तूनां' भक्त जीवों का 'शुभावहे!' मला करने वाली, 'सम्यग्दृष्टीनां' सम्यक्त्वियों को 'धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानाय ' धीरज, प्रीति, मति और बुद्धि देने के लिये 'नित्यम्' हमेशा 'उद्यते !' तत्पर, 'जिनशासननिरतानां' जैन-धर्म में अनुराग वाले तथा 'शान्तिनतानां' श्रीशान्तिनाथ को नमे हुए 'जनतानाम्' जनसमुदाय की 'श्रीसम्पत्कीर्त्तियशो वर्द्धनि' लक्ष्मी, सम्पत्ति, कीर्त्ति और यश को बढ़ाने वाली 'देवि !' हे देवि ! 'जगति' जगत में 'जय' तेरी जय हो तथा 'विजयस्व' विजय हो ॥१०॥११॥
भावार्थ - हे देवि ! जगत् में तेरी जय विजय हो । तू भक्तों का कल्याण करने वाली है; तू सम्यक्त्वियों को धीरज, प्रीति, मति तथा बुद्धि देने के लिये निरन्तर तत्पर रहती है और जो लोग जैन- शासन के अनुरागी तथा श्रीशान्तिनाथ भगवान् को नमन करने वाले हैं; उन की लक्ष्मी, सम्पत्ति तथा यश-कीर्त्ति को बढ़ाने वाली है ॥ १० ॥ ११ ॥
सलिलानलविषविषधर, - दुष्टग्रहराजरोगरणभयतः । राक्षसरिपुगणमारी, चौरेतिश्वापदादिभ्यः ||१२|| अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्तिं च कुरु कुरु सदेति । तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वम् ॥ १३॥
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