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प्रतिक्रमण सूत्र । क्रोध, मान इत्यादि चार कषाय और दण्ड--मनोदण्ड आदि तीन दण्ड; इस प्रकार वन्दनादि जो विधेय (कर्तव्य) हैं उनके न करने से और गौरवादि जो हेय ( छोड़ने लायक) हैं उनके करने से जो कोई अतिचार लगा हो, उसकी इस गाथा में निन्दा की गई है ॥३५॥ * सम्मदिही जीवो, जई वि हु पावं समायरइ किंचि ।
अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्धंधसं कुणइ ॥३६॥
अन्वयार्थ 'जइ वि' यद्यपि 'सम्मदिट्ठी' सम्यग्दृष्टि 'जीवो' जीव 'किंचि' कुछ 'पावं' पाप-व्यापार 'हु' अवश्य 'समायरई' करता है तो भी] 'सि' उसको 'बंधो' कर्म-बन्ध 'अप्पो' अल्प 'होई' होता है; जेण क्यों कि वह 'निद्धंधसं' निर्दय-परिणामपूर्वक [ कुछ भी ] 'नि' नहीं 'कुणइ' करता है ॥३६॥
भावार्थ-सम्यक्त्वी गृहस्थ श्रावक को अपने अधिकार के अनुसार कुछ पापारम्भ अवश्य करना पड़ता है, पर वह जो कुछ करता है उस में उसके परिणाम कठोर (दया-हीन) नहीं होते; इस लिये उसको कर्म का स्थितिबन्ध तथा रस-बन्ध औरों की अपेक्षा अल्प ही होता है ॥३६॥
१-जिस अशुभ योग से आत्मा दण्डित-धर्मभ्रष्ट होता है, उसे दण्ड कहते हैं । इस के मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड ये तीन भेद हैं।
[समवा० सूत्र ३] ___* सम्यग्दृष्टिर्जीवो, यद्यपि खलु पापं समाचरति किञ्चित् ।
अल्पस्तस्य भवति बन्धो, येन न निर्दयं कुरुते ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org