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वंदित्त सूत्र |
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तंपि हु सपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च । खिप्पं उवसामेई, वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो ॥३७॥ अन्वयार्थ – [ श्रावक ] 'सपडिक्कमणं' प्रतिक्रमण द्वारा 'सप्परिआव' पश्चात्ताप द्वारा 'च' और 'सउत्तरगुणं' प्रायश्चित्तरूप उत्तरगुण द्वारा 'तं पि' उसको अर्थात् अल्प पाप-बन्ध को भी 'खिप्पं' जल्दी 'हु' अवश्य 'उवसामेई' उपशान्त करता है 'व्व' जैसे 'सुसिक्खिओ' कुशल 'विज्जो' वैद्य 'वाहि' व्याधि को ॥३७॥
भावार्थ - जिस प्रकार कुशल वैद्य व्याधि को विविध उपायों से नष्ट कर देता है; इसी प्रकार सुश्रावक सांसारिक कामों से बँधे हुए कर्म को प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त द्वारा क्षय कर देता है ||३७||
जहा बिसं कुट्ठयं, मंतमूलविसारया ।
विज्जा हणंति मतेहिं, तो तं हवइ निव्विसं ॥ ३८ ॥ एवं अडविहं कम्मं, रागदोससमज्जिअं । आलोअंतो अ निंदतो, खिष्यं हणइ सुसावओ ॥ ३९ ॥
1 तदपि खलु सप्रतिक्रमणं, सपरितापं सोत्तरगुणं च । क्षिप्रमुपशमयति, व्याधिमिव सुशिक्षितो वैद्यः ॥३७॥ + यथा विषं कोष्टगतं, मन्त्रमूलविशारदाः ।
वैद्या घ्नन्ति मन्त्रै, - स्ततस्तद्भवति निर्विषम् ॥३८॥ एवमष्टविधं कर्म, रागद्वेष समर्जितम् ।
आलोचयँश्च निन्दन्, क्षिप्रं हन्ति सुश्रावकः ॥३९॥
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