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वंदित्त सूत्र ।
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मनोगुप्ति आदि तनि गुप्तियाँ, गौरव-ऋद्धिगौरव आदि तीन प्रकार के गौरव, संज्ञा-आहार, भय आदि चार प्रकार की संज्ञाएँ, काय
रूप भी; समिति केवल प्रवृत्ति रूप है । इस लिये जो समितिमान् है वह गुप्तिमान् अवश्य है । क्यों कि समिति भी सत्प्रवृत्तिरूप आंशिक गुप्ति है, परन्तु जो गुप्तिमान् है वह विकल्प से समितिमान् है । क्यों कि सत्प्रवृत्ति रूप गुप्ति के समय समिति पाई जाती है, पर केवल निवृत्ति रूप गुप्ति के समय समिति नहीं पाई जाती । यही बात श्रीहरिभद्रसूरि ने 'प्रविचार अप्रविचार' ऐसे गूढ शब्दों से कही है।
आव० टी०, पृ० ११०] १--मन आदि को असत्प्रवृत्ति से रोकना और सत्प्रवृत्ति में लगाना 'गुप्ति' है । इस के तीन भेद हैं, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ।
समवायाङ्ग टीका, पृष्ठ -]. २–अभिमान और लालसा को ‘गौरव' कहते हैं। इस के तीन भेद हैं:-(१) धन, पदवी आदि प्राप्त होने पर उस का अभिमान करना और प्राप्त न होने पर उस की लालसा रखना 'ऋद्धिगौरव', (२) घी, दूध, दही आदि रसों की प्राप्ति होने पर उन का अभिमान करना और प्राप्त न होने पर लालसा करना 'रसगौरव' और (३) सुख व आरोग्य मिलने पर उस का अभिमान और न मिलने पर उस की तृष्णा करना ‘सातागौरव' है।
समवायाङ्ग सूत्र ३ टी०, पृ० १] ३–'संज्ञा' अभिलाषा को कहते हैं। इस के संक्षेप में चार प्रकार हैं:आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा और परिग्रह संज्ञा । [समवायाङ्ग सूत्र ४]
४---संसार में भ्रमण कराने वाले चित्त के विकारों को कषाय कहते हैं । इन के संक्षेप में राग, द्वेष ये दो भेद या क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार भेद हैं।
[समवायाङ्ग सूत्र ४].
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