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________________ १०८ प्रतिक्रमण सूत्र । अन्वयार्थ---'तिविहे' तीन प्रकार का 'दुप्पणिहाणे' दुष्प्रणिधान-मन वचन शरीर का अशुभ व्यापार–'अणवट्ठाणे आस्थिरता 'तहा' तथा 'सइविहूणे' याद न रहना; [इन अतिचारों से] 'सामाइय' सामायिक रूप 'पढमे सिक्खावए' प्रथम शिक्षाव्रत 'वितहकए' वितथ-मिथ्या--किया जाता है, इस से इन की 'निंदे' निन्दा करता हूँ ॥२७॥ भावार्थ-सावद्य प्रवृत्ति तथा दुयान का त्याग कर के राग द्वेष वाले प्रसङ्गों में भी समभाव रखना, यह सामायिक रूप पहला शिक्षाव्रत अर्थात् नववा व्रत है। इस के अतिचारों की इस गाथा में आलोचना की गई है । वे अतिचार इस प्रकार हैं: (१) मन को काबू में न रखना, (२) वचन का संयम न करना, (३) काया की चपलता को न रोकना, (४) आस्थिर बनना अर्थात् कालावधि के पूर्ण होने के पहले ही सामायिक पार लेना और (५) ग्रहण किये हुए सामायिक ब्रत को प्रमाद वश भुला देना ॥२७॥ [ दसवें व्रत के अतिचारों की आलोचना ] * आणवणे पेसवणे, सद्दे रूवे अ पुग्गलक्खेवे । देसावगासिआम्म, बीए सिक्खावए निंदे ॥२८॥ * आनयने प्रेषणे, शब्द रूपे च पुद्गलक्षेपे । देशावकाशिके, द्वितीये शिक्षाव्रते निन्दामि ॥ २८ ॥ +देसावगासियस्स समणो० इमे पंच०, तंजहा----आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे सद्दाणुवाए रूवाणुवाए बहियापुग्गलपक्खेवे । [आव० सू०, पृ० ८३४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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