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वंदित्त सूत्र ।
१०९ अन्वयार्थ-'आणवणे' बाहर से कुछ मँगाने से पेसवणे' बाहर कुछ भेजने से 'सद्दे' खखारने आदि के शब्द से 'रूवे' रूप से 'अ' और 'पुग्गलक्खेवे' ढेला आदि पुद्गल के फेंकने से 'देसावगासिअम्मि'; देशावकाशिक नामक 'बीए' दूसरे 'सिक्खावए' शिक्षाव्रत में [ दूषण लगा उसकी ] 'निंदे' निन्दा करता हूँ ॥२८॥
भावार्थ-छठे व्रत में जो दिशाओं का परिमाण और सातवें व्रत में जो भोग उपभोग का परिमाण किया हो, उसका प्रतिदिन संक्षेप करना, यह देशावकाशिक रूप दूसरा शिक्षावत अर्थात् दसवाँ व्रत है । इस व्रत के अतिचारों की इस गाथा में आलोचना की गई है । वे अतिचार इस प्रकार हैं:
(१) नियमित हद्द के बाहर से कुछ लाना हो तो व्रत भङ्ग की धास्ती से स्वयं न जा कर किसी के द्वारा उसे मँगवा लेना, (२) नियमित हद्द के बाहर कोई चीज भेजनी हो तो व्रत भङ्ग होने के भय से उस को स्वयं न पहुँचा कर दूसरे के मारफत भेजना, (३) नियमित क्षेत्र के बाहर से किसी को बुलाने की जरूरत हुई तो स्वयं न जा सकने के कारण खाँसी, खखार आदि कर के उस शख्स को बुला लेना, (४) नियमित क्षेत्र के बाहर से किस को बुलाने की इच्छा हुई तो व्रत भङ्ग के भय से स्वयं न जाकर हाथ, मुँह आदि अङ्ग दिखा कर उस व्याक्त को आने
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