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वंदित्त सूत्र । अन्वयार्थ--'थूलगपरदव्वहरणविरईओ' स्थूल पर-द्रव्यहरण विरतिरूप 'इत्थ' इस 'तइए' तीसरे 'अणुव्वयम्मि' अणुव्रत के विषय में 'पमायप्पसंगणं' प्रमाद के वश हो कर 'अप्पसत्थे' अप्रशस्त 'आयरिअं' आचरण किया; [जैसे] 'तेनाहडप्पओगे' चोर की लाई हुई वस्तु का प्रयोग करना-उसे खरीदना, 'तप्पडिरूवे' असली वस्तु दिखा कर नकली देना, 'विरुद्धगमणे' राज्य-विरुद्ध प्रवृत्तिकरना, 'कूडतुल' झूठी तराजू रखना, 'अ' और 'कूडमाणे' छोटा बडा नाप रखना; इससे लगे हुए 'सव्वं' सब 'देसिअं' दिवस सम्बन्धी दोष से 'पडिक्कमे' निवृत्त होता हूँ ॥१३॥१४॥
भावार्थ- सूक्ष्म और स्थूलरूप से अदत्तादान दो प्रकार का है। मालिक की संमति के विना भी जिन चीजों को लेने पर लेने वाला चोर नहीं समझा जाता ऐसी ढेला-सृण आदि मामूली चीजों को, उनके स्वामी की अनुज्ञा के लिये विना, लेना सूक्ष्म अदत्तादान है । इसका त्याग गृहस्थ के लिये कठिन है, इसलिये वह स्थल अदत्तादान का अर्थात् जिन्हें मालिक की आज्ञा के विना लेने वाला चोर कहलाता है ऐसे पदार्थों को उनके मालिक की आज्ञा के विना लेने का त्याग करता है; यह तीसरा अणुवत है। इस व्रत में जो आतिचार लगते हैं उनके दोषों की इन दो गाथाओं में आलोचना है । वे अतिचार ये हैं:
(१) चोरी का माल खरीद कर चोर को सहायता पहुँचाना, (२) बढ़िया नमूना दिखा कर उसके बदले घटिया चीज देना या
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