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प्रतिक्रमण सूत्र ।
[ पहले अणुव्रत के अतिचारों की आलोचना ] * पढमे अणुव्वयम्मि, थूलगपाणाइवायविरईओ । आयरिअमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पणं ॥९॥ वह बंध छविच्छेए, अइभारे भत्तपाणवुच्छेए । पढमवर्यस्सइआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ १० ॥ f चार व्रत 'शिक्षाव्रत' कहे जाते हैं । गुणव्रत और शिक्षाव्रत ' देश उत्तरगुणरूप' हैं पहले आठ व्रत यावत्कथित हैं - अर्थात् जितने काल के लिये ये व्रत लिये जाते हैं उतने काल तक इनका पालन निरन्तर किया जाता है । पिछले चार इत्वरिक हैं - अर्थात् जितने काल के लिये ये व्रत लिये जाँय उतने काल तक उनका पालन निरन्तर नहीं किया जाता, सामायिक और देशावकाशिक ये दो प्रतिदिन लिये जाते हैं और पौषध तथा अतिथिसंविभाग ये दो व्रत अष्टमी चतुर्दशी पर्व आदि विशेष दिनों में लिये जाते हैं । [ आवश्यक सूत्र, पृष्ठ ८३८] * प्रथमेऽणुवृते, स्थूलकप्राणातिपातविरतितः । आचरितमप्रशस्तेऽत्रप्रमादप्रसङ्गन ॥९॥
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धो बन्धरछविच्छेदः, अतिभारो भक्तपानव्यवच्छेदः । प्रथमवृतस्यातिचारान् प्रतिक्रामामि देवासकं सर्वम् ॥१०॥
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१ - पहले व्रत में यद्यपि शब्दतः प्राणों के अतिपात - विनाशका ही प्रत्याख्यान किया जाता है, तथापि विनाश के कारणभूत वध आदि क्रियाओं का त्याग भी उस व्रत में गर्भित है । वध, बन्ध आदि करने से प्राणी को केवल कष्ट पहुँचता है, प्राण - नाश नहीं होता । इस लिये बाह्य दृष्टि से देखने पर उस में हिंसा नहीं है, पर कषायपूर्वक निर्दय व्यवहार किये जाने के कारण अन्तर्दृष्टि से देखने पर उस में हिंसा का अंश हैं । इस प्रकार वध बन्ध आदि से प्रथम व्रत का मात्र देशतः भङ्ग होता है । इस कारण वध, बन्ध आदि पहले बूत के अतिचार हैं । [ पञ्चाशक टीका, पृष्ठ १० ]
↑ थूलगपाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणि
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