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________________ वंदित्त सूत्र । ८७ 'जं' जो 'दोसा' दोष [ लगे ] 'तं' उनकी 'चेव' अवश्य 'निंदे' निन्दा करता हूँ ||७|| भावार्थ -- अपने लिये या पर के लिये या दोनों के लिये कुछ पकाने, पकवाने में छह काय की विराधना होने से जो दोष लगते हैं उनकी इस गाथा में आलोचना है ||७|| [ सामान्यरूप से बारह व्रत के अतिचारों की आलोचना ] 1 पंचण्हमणुव्वयाणं, गुणव्वयाणं च तिण्हमइआरे । सिक्खाणं च चउण्हं, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ - 'पंच' पाँच 'अणुव्वयाणं' अणुत्रतों के 'तिह' तीन 'गुणव्वयाणं' गुणत्रतों के 'च' और 'चउन्हें ' चार 'सिक्खाणं' शिक्षावतों के 'अइआरे' अतिचारों से [ जो कुछ ] 'देसिअं' दैनिक [ दूषण लगा ] 'सव्वं' उस सब से 'पडि - क्कमे' निवृत्त होता हूँ ॥ ८ ॥ भावार्थ- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षात्रत, इस प्रकार बारह व्रतों के तथा तप-संलेखना आदि के अतिचारों को सेवन करने से जो दूषण लगता है उसकी इस गाथा में आलोचना की गई है || ८|| ८ + पञ्चानामणुव्रतानां, गुणव्रतानां च त्र्याणामतिचारान् । शिक्षाणां च चतुणीं, प्रतिक्रामामि दैवासिकं सर्वम् ॥८॥ १ श्रावक के पहले पाँच व्रत महाव्रत की अपेक्षा छोटे होने के कारण अणुव्रत ' कहे जाते हैं; ये 'देश मूलगुणरूप ' हैं । अणुव्रतों के लिये गुणकारक अर्थात् पुष्टिकारक होने के कारण छठे आदि तीन व्रत 'गुणवत' कहलाते हैं । और शिक्षा की तरह बार बार सेवन करने योग्य होने के कारण नववें आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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