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________________ ८६ प्रतिक्रमण सूत्र | भावार्थ — सम्यक्त्व में चार हैं जो त्यागने योग्य हैं, है । वे अतिचार इस प्रकार हैं: मलिनता करने वाले पाँच अतिउनकी इस गाथा में आलोचना (१) वीतराग के वचन पर निर्मूल शङ्का करना शङ्कातिचार, (२) अहितकारी मत को चाहना काङ्क्षातिचार, (३) धर्म का फल मिलेगा या नहीं, ऐसा सन्देह करना या निःस्पृह त्यागी महात्माओं के मलिन वस्त्र - पात्र आदि को देख उन पर घृणा करना विचिकित्सातिचार, (४) मिथ्यात्वियों की प्रशंसा करना जिससे कि मियाभाव की पुष्टि हो कुलिङ्गिप्रशंसातिचार, और (५) बनावटी नस पहन कर धर्म के बहाने लोगों को धोखा देने वाले पाखण्डियों का परिचय करना कुलिङ्गिसंस्तवातिचार ॥ ६ ॥ [ आरम्भजन्य दोषों की आलोचना ] * छक्कायसमारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा । अत्तट्ठा य परट्ठा, उभयट्ठा चैव तं निंदे ॥७॥ अन्वयार्थ – 'अत्तट्ठा' अपने लिये 'परट्ठा' पर के लिये 'य' और 'उभयट्ठा' दोनों के लिये 'पयणे' पकाने में 'अ' तथा 'पयावणे' पकवाने में 'छक्कायसमारंभे' छह काय के आरम्भ से १- शङ्का आदि से तत्त्वरुचि चलित हो जाती है, इसलिये वे सम्यक्त्व के अतिचार कहे जाते हैं । Jain Education International * षट्कायसमारम्भे, पचने च पाचने च ये दोषाः । आत्मार्थं च परार्थं, उभयार्थ चैव तन्निन्दामि ॥७॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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