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वंदित्तु सूत्र ।
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अन्वयार्थ --' इत्थं' इस 'थूलग' स्थूल 'पाणाइवायविरईओ' प्राणातिपात विरार्तरूप ‘पढमे' पहले 'अणुव्वयम्मि अणुव्रत के के विषय में 'पमायप्पसंगेणं' प्रमाद के प्रसङ्ग से 'अप्पसत्थे' अप्रशस्त 'आयरिअं' आचरण किया हो; [ जैसे ] 'वह' वध - ताड़ना, 'बंध' बन्धन, 'छविच्छेए' अङ्गच्छेद, 'अइभारे' बहुत बोझ लादना, 'भत्तपाणवुच्छेए' खाने पीने में रुकावट डालना; [इन] 'पढमवयस्स' पहले व्रत के 'अइआरे' अतिचारों के कारण जो कुछ 'देसिअ ' दिन में [ दूषण लगा हो उस ] 'सव्वं' सब से 'पडिक्कमे ' निवृत्त होता हूँ ॥ २९ ॥ १० ॥
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भावार्थ - जीव सूक्ष्म और स्थूल दो प्रकार के हैं । उन सब की हिंसा से गृहस्थ श्रावक निवृत्त नहीं हो सकता । उसको अपने धन्धे में सूक्ष्म ( स्थावर ) जीवों की हिंसा लग ही जाती है,. इसलिये वह स्थूल (स ) जीवों का पच्चक्खाण करता है । स में भी जो अपराधी हों, जैसे चोर हत्यारे आदि उनकी हिंसा का पचक्खाण गृहस्थ नहीं कर सकता; इस कारण वह निरपराध सजीवों की ही हिंसा का पच्चक्खाण करता है । निरपराध त्रस जीवों की हिंसा भी संकल्प और आरम्भ दो तरह से होती है । इसमें आरम्भजन्य हिंसा, जो खेती व्यापार आदि धन्धे में
यव्वा, तंजहा बंधे वहे छविच्छेए अदभारे भत्तपाणवुच्छेए ।
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[ आवश्यक सूत्र, पृष्ठ ८१८ ]
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