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________________ प्रतिक्रमण सूत्र । * बद्धमिदिएहि, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं । रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥४॥ अन्वयार्थ---'अप्पसत्येहिं' अप्रशस्त 'चउहिं' चार 'कसाएहिं कषायों से 'व' अर्थात् 'रागेण' राग से 'व' या 'दोसेण' द्वेष से 'इंदिएहिं' इन्द्रियों के द्वारा 'ज' जो [पाप] 'बद्धं बाधा 'त' उसकी निंदे' निन्दा करता हूँ, 'च' और 'त' उसकी गरिहामि' गर्दा करता हूँ॥ ४ ॥ भावार्थ-क्रोध, मान, माया और लोभ स्वरूप जो चार अप्रशस्त (तीव्र) कषाय हैं, उन के अर्थात् राग और द्वेष के वश होकर अथवा इन्द्रियों के विकारों के वश होकर जो पाप का बन्ध किया जाता है, उसकी इस गाथा में आलोचना की गई है ॥४॥ आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे [य] अणाभोगे । आभिओगे अनिओगे, पडिक्कमे दोस सव्वं ॥५॥ अन्वयार्थ--'अणाभोगे' अनुपयोग से 'अभिओगे' दबाव से 'अ' और 'निओगे' नियोग से 'आगमणे' आने में 'निग्गमणे' जाने में 'ठाणे' ठहरने में 'चंकमणे' घूमने में जो ‘देसिअं' दैनिक [दूषण लगा ] ' सव्वं ' उस सब से 'पडिक्कमे' निवृत्त होता हूँ॥५॥ * यद्बद्धमिन्द्रियैः, चतुर्भिः कषायैरप्रशस्तैः । रागेण वा द्वेषेण वा, तन्निन्दामि तच्च गर्हे ॥४॥ । भागमने निर्गमने, स्थाने चङ्कमणेऽनाभोगे । अभियोगे च नियोगे, प्रतिक्रामामि देवसिकं सर्वम् ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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