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वंदित्त सूत्र ।
विषय में 'चरित्ते' चारित्र के विषय में 'तह' तथा 'अ' च शब्द से तप, वीर्य आदि के विषय में 'सुहुमो' सूक्ष्म 'वा' अथवा 'बायरो' बादर-स्थूल 'जो' जो 'वयाइआरो' व्रतातिचार 'मे' मुझको [ लगा] 'तं' उसकी 'निंदे' निन्दा करता हूँ 'च' और 'तं' उसकी ‘गरिहामि' गर्दा करता हूँ ॥२॥
भावार्थ--इस गाथा में, समुच्चयरूप से ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप आदि के अतिचारों की, जिनका वर्णन आगे किया गया है, आलोचना की गई है ॥२॥ + दुविहे परिग्गहम्मि, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे ।
कारावणे अ करणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥३॥
अन्वयार्थ–'दुविहे' दो तरह के 'परिग्गहम्मि' परिग्रह के लिये 'सावज्जे' पाप वाले 'बहुविहे' अनेक प्रकार के 'आरंभे'
आरम्भों को 'कारावणे' कराने में 'अ' और 'करणे' करने में [दूषण लगा] 'सव्वं उस सब 'देसिअं' दिवस-सम्बन्धी दूषण] से 'पडिक्कमे' निवृत्त होता हूँ ॥३॥
भावार्थ-सचित्त [ सजीव वस्तु ] का संग्रह और अचित्त [ अजीव वस्तु] का संग्रह ऐसे जो दो प्रकार के परिग्रह हैं, उनके निमित्त सावध-आरम्भ वाली प्रवृत्ति की गई हो, इस गाथा में उसकी समुच्चयरूप से आलोचना है ॥३॥
+द्विविधे परिग्रहे, सावद्ये बहुविधे चाऽऽरम्भे ।
कारणेब केरणे, प्रतिक्रामामि दैवासकं सर्वम् ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org