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प्रतिक्रमण सूत्र ।
अन्वयार्थ-'सव्वासद्धे' सब सिद्धों को 'धम्मायरिए' धर्माचार्यों को 'अ' और 'सव्वसाहू अ सब साधुओं को 'वंदित्त' वन्दन कर के 'सावगधम्माइआरस्स' श्रावक-धर्मसंबन्धी अतिचार से 'पडिक्कमिउं' निवृत्त होना 'इच्छामि' चाहता हूँ॥१॥
भावार्थ-सब सिद्धों को, धर्माचार्यों को और साधुओं को वन्दन कर के श्रावक-धर्मसम्बन्धी अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ ॥१॥
[सामान्य व्रतातिचार की आलोचना] * जो मे वयाइआरो, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ ।
सुहुमो अ बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि ॥२॥ अन्वयार्थ--'नाणे' ज्ञान के विषय में 'दंसणे' दर्शन के
वरणकषाय देश-विरति को प्रकट होने से रोकता भी है और कदाचित् उसे न रोक कर उसमें मालिन्य मात्र पैदा करता है । [ पञ्चाशक टीका, पृ. ९] इस तरह विचारने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि व्यक्त गुण की मलिनता या उसके कारणभूत कषायोदय को ही अतिचार कहना चाहिये । तथापि शङ्का, काङक्षा आदि या वध-बन्ध आदि बाह्य प्रवृत्तिओं को अतिचार कहा जाता है, सो परम्परा से; क्योंकि ऐसी प्रवृत्तिओं का कारण, कषाय का उदय ही है। तथाविध कषाय का उदय होने ही से शङ्का आदि में प्रवृत्ति या वध, बन्ध आदि कार्य में प्रवृत्ति होती देखी जाती है ।
१-अरिहन्त तथा सिद्ध । २-आचार्य तथा उपाध्याय । * यो मे व्रतातिचारो, ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च । * सूक्ष्मो वा बादरो बा,तं निन्दामि तं च गर्दै ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org