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वंदित्तु सूत्र ।
३३ - सव्वरसवि |
सव्वस्व देवसिअ दुच्चिति दुब्भासिअ दुच्चिद्विअ, इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच्छं । तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
इस का अर्थ पूर्ववत् जानना ।
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३४ - वंदित्त - श्रावक का प्रतिक्रमण
सूत्र |
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वंदित्तु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ । इच्छामि पडिक्कमिउं, सावगधम्माइओरस्स || १॥ * वन्दित्वा सर्वसिद्धान्, धर्माचार्यश्च सर्वसाधूंश्च । इच्छामि प्रतिक्रमितुं श्रावकधर्मातिचारस्य ॥ १ ॥
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- गुण प्रकट होने पर उसमें आने वाली मलिनता को अतिचार कहते हैं। अतिचार और भङ्ग में क्या अन्तर है ?
उत्तर - प्रकट हुए गुण के लोप को - सर्वथा तिरोभाव को भङ्ग कहते हैं और उस के अल्प तिरोभाव को अतिचार कहते हैं । शास्त्र में भङ्ग को
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'सर्व - विराधना' और अतिचार को 'देश - विराधना ' कहा है । अतिचार का कारण कषाय का उदय है । कषाय का उदय तीव्र - मन्दादि अनेक प्रकार का होता है । तीव्र उदय के समय गुण प्रकट ही नहीं होता, मन्द उदय के समय गुण प्रकट तो होता है किन्तु बीच २ में कभी २ उस में मालिन्य हो आता है । इसी से शास्त्र में काषायिक शक्ति को विचित्र कहा है । उदाहरणार्थ - अनन्तानुबन्धिकषाय का उदय सम्यक्त्व को प्रकट होने से रोकता है और कभी उसे न रोक कर उस में मालिन्य मात्र पैदा करता है । इसी प्रकार अप्रत्याख्याना -
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