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प्रतिक्रमण सूत्र ।
यात्रा निर्बाध है ? (उत्तर में गुरु 'तुभपि वट्टइ' कह कर शिष्य से उस की संयम-यात्रा की निर्विघ्नता का प्रश्न करते हैं । शिष्य फिर गुरु से पूछता है कि ) क्या आप का शरीर सब विकारों से रहित और शक्तिशाली है ? (उत्तर में गुरु एवं' कहते हैं)
( अब यहां से आगे शिष्य अपने किये हुए अपराध की क्षमा माँग कर आतचार का प्रतिक्रमण करता हुआ कहता है कि) हे क्षमाश्रमण गुरो ! मुझ से दिन में या रात में आपका जो कुछ भी अपराध हुआ हो उस की मैं क्षमा चाहता हूँ। (इसके बाद गुरु भी शिष्य से अपने प्रमाद-जन्य अपराध की क्षमा माँगते हैं । फिर शिप्य प्रणाम कर अवग्रह से बाहर निकल आता है; बाहर निकलता हुआ यथास्थित भाव को क्रिया द्वारा प्रकाशित करता हुआ वह 'आवस्सिआए' इत्यादि पाठ । कहता है। ) आवश्यक क्रिया करने में मुझ से जो अयोग्य विधान हुआ हो उस का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। (सामान्यरूप से इतना कह कर फिर विशेष रूप से प्रतिक्रमण के लिये शिष्य कहता है कि ) हे क्षमाश्रमण गुरो ! आप की तेतीस में से किसी भी दैवसिक या रात्रिक आशातना के द्वारा मैंने जो अतिचार सेवन किया उसका प्रतिक्रमण करता हूँ; तथा किसी मिथ्याभाव से होने वाली, द्वेषजन्य, दुर्भाषणजन्य, लोभजन्य, सर्वकाल-सम्ब
१-ये आशातनाएँ आवश्यक सूत्र पृ० ७२३ और समवायाङ्ग सूत्र पृ० ५८ में वर्णित हैं।
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