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पुक्खरवरदीवड्ढे । __ [ तीन गाथाओं में श्रत की स्तुति ।) * तम-तिमिर-पडल-विद्धंसणस्स सुर-गणनरिंदमहियस्स । सीमाधरस्स वंदे,
पष्फोडिअ-मोह-जालस्स ॥२॥
अन्वयार्थ---'तमतिमिरपडलविद्धंसणस्स' अज्ञानरूप अन्धकार के परदे का नाश करने वाले ‘सुरगणनरिंदमहियस्स' देवगण
और राजों के द्वारा पूजित, 'सीमाधरस्स' मर्यादा को धारण करने वाले [और] 'पप्फोडिअ-मोह-जालस्स' मोह के जाल को तोड़ देने वाले [ श्रुत को ] 'वंदे' मैं वन्दन करता हूँ ॥२॥ + जाई-जरा-मरण-सोग-पणासणस्स । कल्लाण-पुक्खल-विसाल-सुहावहस्स ॥
को देवदाणवनारिंदंगणच्चियस्स ।
धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ॥३॥
अन्वयार्थ--'जाईजरामरणसागपणासणस्स' जन्म, जरा, मरण और शोक को मिटाने वाले 'कल्लाणपुक्खल* तमस्तिमिरपटलविध्वंसनस्य सुरगणनरेन्द्रमहितस्य । सीमाधरस्य वन्द प्रस्फोटितमोहजालस्य ॥२॥ + जातिजरामरणशोकप्रणाशनस्य ।
कल्याणपुष्कलविशालसुखावहस्य ॥ को देवदानवनरेन्द्रगणार्चितस्य । धर्मस्य सारमुपलभ्य कुर्यात् प्रमादम् ॥३॥
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