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________________ ५४ प्रतिक्रमण सूत्र । विसालसुहावहस्स' कल्याणकारी और परम उदार सुख अर्थात् मोक्ष को देने वाले 'देवदाणवनरिंदगणच्चिअस्स' देवगण, दानवगण, और नरपतिगण के द्वारा पूजित, [ ऐसे ] 'धम्मस्स' धर्म के 'सारं' सार को 'उवलब्भ' पा कर ‘पमायं' प्रमाद 'को' कौन 'करे' करेगा ? ॥३॥ + सिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए नंदी सया संजमे। . देवनागसुवन्नकिन्नरगणस्सब्भूअभावच्चिए । लोगो जत्थ पहाडिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं । धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ॥४॥ अन्वयार्थ-----'भो' हे भव्यों ! [मैं ] ‘पयओ' बहुमानयुक्त हो कर 'सिद्धे' प्रमाण भूत 'जिणमये' जिनमत-जिन-सिद्धान्त को ‘णमो' नमस्कार करता हूँ [जिस सिद्धान्त से ] 'देवं-नागसुवन्न-किन्नरगण' देवों, नागकुमारों, सुवर्णकुमारों और किन्नरों के समूह द्वारा ‘स्सब्भूअभावच्चिए' शुद्ध भावपूर्वक अर्चित + सिद्धाय भोः ! प्रयतो नमो जिनमताय नन्दिः सदा संयमे । देवनागसुवर्णकिन्नरगणसद्भूतभावार्चिते ॥ लोको यत्र प्रतिष्ठितो जगदिदं त्रैलोक्यमामुरं । धर्मो वर्धतां शाश्वतो विजयतो धर्मोत्तरं वर्धतां ॥४॥ १-ये भवनपति निकाय के देव-विशेष हैं । इन के गहनों में साँप का चिह्न है और वर्ण इन का सफ़ेद है ॥ २–ये भी भवनपति जाति के देव हैं इन के गहनों में गरुड़ का चिह्न और वर्ण इन का सुवर्ण की तरह गौर है ।(बृहत्संग्रहणी गा०४२-४४)। ३-ये व्यन्तर जाति के देव हैं । चिह्न इन का अशोक वृक्ष है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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