SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्लाणकंदं। ४५ __ अन्वयार्थ----'अपारसंसारसमुद्दपारं' संसार रूप अपार समुद्र के पार को 'पत्ता' पाये हुए, 'सुरविंदवंदा' देवगण के भी वन्दन योग्य, 'कल्लाणवल्लीण' कल्याण रूप लताओं के 'विसाल कंदा' विशाल कन्द 'सव्वे' सब 'जिणिंदा' जिनेन्द्र 'सुइक्कसारं' पवित्र वस्तुओं में विशेष सार रूप 'सिवं' मोक्ष को 'दितु ' देवें ॥२॥ भावार्थ-[ सब तीर्थङ्करों की स्तुति ] संसार समुद्र के पार पहुँचे हुए, देवगण के भी वन्दनीय और कल्याण-परंपरा के प्रधान कारण ऐसे सकल जिन मुझ को परम पवित्र मुक्ति देवें ॥२॥ + निव्वाणमग्गेवरजाणकप्पं, पणासियासेसकुवाइदप्पं । मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, नमामि निच्चं तिजगप्पहाणं ॥३॥ अन्वयार्थ-'निव्वाणमग्गे' मोक्ष-मार्ग के विषय में 'वरजाणकप्पं ' श्रेष्ठ वाहन के समान 'पणासियासेसकुवाईदप्प' समस्त कदाग्रहियों के घमंड को। तोड़ने वाले, 'बुहाणं' पण्डितों के लिये 'सरणं' आश्रय भूत और ‘तिजगप्पहाणं' तीन जगत् में प्रधान ऐसे 'जिणाणंमयं' जिनेश्वरों के मत के +निर्वाण-मार्गे वरयानकल्पं प्रणाशिताऽऽशेषकुवादिदर्पम् ॥ " मतं जिनानां शरणं बुधानां नमामि नित्यं त्रिजगत्प्रधानम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy