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________________ कल्लाकंद | ४३ + सद्धाए, मेहाए, धिईए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्ढमाणीए, ठामि काउस्सग्गं ॥ अन्वयार्थ — 'वड्ढमाणीए' बढ़ती हुई 'सद्धाए' श्रद्धा से 'मेहा बुद्धि से; 'धिईए' धृति से अर्थात् विशेष प्रीति से धारणाए' धारणा से अर्थात् स्मृति से 'अणुप्पेहाए' अनुप्रेक्षा से अर्थात् तत्व-चिंतन से 'काउस्सग्गं ' कायोत्सर्ग' ठामि ' करता हूँ ॥ ३ ॥ भावार्थ - - अरिहंत भगवान् की प्रतिमाओं के वन्दन, पूजन, सत्कार, और सम्मान करने का अवसर मिले तथा वन्दन आदि द्वारा सम्यक्त्व और मोक्ष प्राप्त हो इस उद्देश्य से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ || बढ़ती हुई श्रद्धा, बुद्धि, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षा पूर्वक कायोत्सर्ग करता हूँ ॥ २० – कल्लाणकंदं स्तुति । * कल्लाणकंदं पढमं जिणिदं, संतिं तओ नेमिजिणं मुणिंदं । + श्रद्धया, भेधया, श्रृत्या, धारणया, अनुप्रेक्षया, वर्द्धमानया, तिष्ठामि कायोत्सर्गम् ॥ ३ ॥ * कल्याणकन्दं प्रथमं जिनेन्द्रं, शान्ति ततो नेमिजिनं मुनीन्द्रम् । पार्श्वम् प्रकाशं सुगुणैकस्थानं, भक्त्या वन्दे श्रीवर्द्धमानम् ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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