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प्रतिक्रमण सूत्र |
अन्वयार्थ——‘चिंतामणिकप्पपायवब्भहिए' चिन्तामणि और कल्प वृक्ष से भी अधिक [ ऐसे ] 'सम्मत्ते' सम्यक्त्व को 'तुह' तुझ से 'लद्धे' प्राप्त कर लेने पर 'जीवा' जीव 'अविग्घेणं' विघ्न के सिवाय 'अयरामरं' जरा-मरण-रहित 'ठाणं' स्थान को 'पावंति' पाते हैं ॥ ४॥
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भावार्थ -- सम्यक्त्व गुण, चिन्तामणि - रत्न और कल्पवृक्ष से भी उत्तम है । हे भगवन् ! उस गुण को तेरे आलम्बन से प्राप्त कर लेने पर जीव निर्विघ्नता से अजरामर पद को पाते हैं ॥४॥
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भक्ति के आवेग से
इअ संधुओ महायस ! भत्तिब्भर - निब्भरेण हिअएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास - जिणचंद ||५|| अन्वयार्थ--' महायस !' हे महायशस्विन् ! [मैंने] 'इअ' इस प्रकार 'भत्ति-ब्भर - निब्भरेण' परिपूर्ण ' हिअएण ' हृदय से 'संधुओ' [ तेरी ] स्तुति की 'ता' इस लिये 'पास - जिणचंद' हे पार्श्व- जिनचन्द्र 'देव' देव ! 'भवे भवे' हर एक भव में [ मुझ को ] 'बोहिं' सम्यक्त्व ' दिज्ज' दीजिये ॥ ५ ॥
भवार्थ —— महायशस्विन् पार्श्वनाथ प्रभो ! इस प्रकार भक्तिपूर्ण हृदय से तेरी स्तुति कर के मैं चाहता हूँ कि जन्म-जन्म में मुझ को तेरी कृपा से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो ॥ ५ ॥
+ इति संस्तुतो महायशः ! भक्तिभरनिर्भरण हृदयेन ।
तस्मात् देव ! देहि बोधिं भवे भवे पार्श्व जिनचन्द्र ॥ ५ ॥
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