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________________ जय वीयराय । ३९ १८-जय वीयराय सूत्र। * जय वीयराय ! जगगुरु ! , होउ ममं तुह पभावओ भयवं!। भव-निव्वेओ मग्गा-णुसरिआइट्ठफलसिद्धी ॥१॥ लोग विरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूआ परत्थकरणं च । सुहगुरुजोगो तव्वय-णसेवणा आभवमखंडा ॥२॥ अन्वयार्थ--'वीयराय' हे वीतराग ! 'जगगुरु' हे जगगरो ! 'जय' तेरी] जय हो । 'भयवं' हे भगवन् ! 'तुह' तेरे 'पभावओं' प्रभाव से 'मम' मुझ को 'भवनिव्वेओ' संसार से वैराग्य, ‘मग्गणुसारिआ' मार्गानुसारिपन, 'इट्टफलसिद्धी' इष्ट फल की सिद्धि, 'लोगविरुद्धच्चाओ' लोक-विरुद्ध कृत्य का त्याग १-चैत्यवन्दन के अन्त में संक्षेप और विस्तार इस तरह दो प्रकार से प्रार्थना की जा सकती है। संक्षेप में प्रार्थना करनी हो तो “ दुक्खखओ कम्मखओ" यह एक ही गाथा पढ़नी चाहिये और विस्तार से करनी हो तो " जय वीयराय " आदि तीन गाथाएँ । यह बात श्रीवादि-बेताल शान्तिसूरि ने अपने चैत्यवन्दन महाभाष्य में लिखी है। किन्तु इस से प्राचीन समय में प्रार्थना सिर्फ दो गाथाओं से की जाती थी क्योंकि श्री हरिभद्रासूरि ने चतुर्थ पञ्चाशक गा ३२-३४ में “जय वीयराय, लोग विरुद्धच्चाओ" इन दो गाथाओं से चैत्यवन्दन के अन्त में प्रार्थना करने की पूर्व परम्परा बतलाई है । * जय वीतराग ! जगद्गुरो ! भवतु मम तव प्रभावतो भगवन् । भवनिर्वेदो मार्गानुसरिता इष्टफलसिद्धिः ॥१॥ लोकविरुद्धयागो गुरुजनपूजा परार्थकरणं च । । शुभगुरुयोगः तद्वचनसेवनाऽऽभवमखण्डा ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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