SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसग्गहरं । ३७ भावार्थ-जो मनुष्य भगवान् के नाम-गर्भित 'विषधरस्फुलिङ्ग' मन्त्र को हमेशा कण्ठ में धारण करता है अर्थात् पढ़ता है उसके प्रतिकूल ग्रह, कष्ट साध्य रोग, भयंकर मारी और दुष्ट ज्वर ये सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं ॥२॥ * चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नर-तिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्खदोगचं ॥३॥ • अन्वयार्थ-मंतो' मन्त्र ‘दूरे' दूर 'चिट्ठउ' रहो 'तुज्झ' तुझ को किया हुआ ‘पणामोवि प्रणाम भी 'बहुफलो' बहुत फलदायक होई' होता है, [ क्योंकि उस से ] 'जीवा' जीव 'नरतिरिएसु वि' मनुष्य, तिर्यंच गति में भी 'दुक्खदोगच्चं' दुःख-दरिद्रता 'न पावंति' नहीं पाते हैं ॥ ३ ॥ भावर्थ हे भगवन् ! विषधरस्फुलिङ्ग मन्त्र की बात तो दूर रही; सिर्फ तुझ को किया प्रणाम भी अनेक फलों को देता है, क्योंकि उस से मनुष्य तो क्या, तिर्यंच भी दुःख या दरिद्रता कुछ भी नहीं पाते ॥ ३ ॥ x तुह सम्मते द्धे, चिंतामणिकप्पपायबब्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ * तिष्ठतु दूरे मन्त्रः तव प्रणामोपि बहुफलो भवति । नरतिरश्चोरपि जीवाः प्राप्नुवन्ति न दुःखदौर्गत्यम् ॥३॥ x तव सम्यक्त्वे लब्धे चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिके । प्राप्नुवन्ति अविनेन, जीवा अजरामरं स्थानम् ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy