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श्रमण वंशवृक्ष
४. निम्रन्थ निग्रन्थ-बीचरता वीतराग छद्मस्थ. ५. स्नातक निर्ग्रन्थ-केवली भगवान् ।
निम्रन्थ शब्दनो सामान्यतया "सर्वविरतिधर साधु" आवो रूढ अर्थ करीए यारे ज पांच भेदो थाय छे. परन्तु “ बाह्य अभ्यंतर ग्रंथीथी रहित वीतराग छमस्थ-अंतर्मुहूर्तमां केवळी थाय तेला श्रमण" आवो यौगिक अर्थ करीए. तो तेनो एक ज भेद रहे छे.
निर्ग्रन्थिनीना पग उपर्यंत पांच भेदो होय छे.
एटले भगवान् महावीर स्वामीना श्रमणो निर्ग्रन्थ तरीके प्रसिद्ध छे. त्यार पछीना समयमां पण तेओने माटे ए ज शब्द कायम रह्यो छे. प्राचीन शिलालेखो अने ग्रन्थो ते वातनी साक्षी पूरे छे. जुओ१. आयागपटो प्रतिष्ठापितो, निगन्थानम् अर्हता....
--(मथुराना शिलालेखो) २. बोगराजिल्ला (बंगाळ ) ना स्टेशन जमालगंज (E. B. R.) पासे पहाडपुर (ौड्वर्धन शहेर ) ना जैन टीलामांथी मळेल ताम्रपत्रमा जणायुं छे के—गुप्त सं० १५९मां वटगोहली गाममा एक ब्राह्मण दंपतीए निम्रन्थ--विहारनी पूजा माटे भूमि-दान कयु.
– ( मोडर्न रीव्यु, ओगस्ट, सन् १९३१, पृष्ट १५०) ३. निम्रन्थोने वस्त्रदान कर्यु. ----( खारवेलनो शिलालेख ) ४. जैन श्रमणो बे प्रकारना छे १. निर्ग्रन्थ (श्वेताम्बर ), २. आजीविक ( दिगंबर ).
-(बुद्धरचित मणिमेखला-तामिल काव्य.) ५. जे इमे अजत्ताए समणा निग्गंत्था विहरन्ति । ---- ( कप्पसुअ) निम्रन्थो रजोहरण, मुहपत्ति, वस्त्र, पात्र वगेरे उपकरणयुक्त होय छे. छतां तेमां निर्मम होय छे. आ निम्रन्थोनो समूह एटले निग्रन्थगण (निर्ग्रन्थगच्छ) ए जैन श्रमणोनो सौथो प्रथम गच्छ छे.
कोटिकगच्छ (२) वीरनिर्वाणनी बीजी सदीना उत्तरार्धेमां बार वर्षनी दुकाळ पड्यो. एटले निर्ग्रन्थोनी संख्यामां घटाडो थयो अने श्रुतज्ञानने पण धक्को लाग्यो. आ स्थितिमां श्रुतनुं संरक्षण करवू अगत्यर्नु हतुं.
त्यार बाद सो वर्ष पछी सम्राट् संप्रतिए जैनोनी संख्यामां मोटो वधारो को. आ नवा जैनोनुं संरक्षण पण एटलं ज आवश्यक हतुं.
आ बन्ने परिस्थितिने पहेांची वळवा माटे निर्ग्रन्थोए भिन्न भिन्न गच्छ, कुळ अने शाखाओनी व्यवस्था करी. एटले श्री भद्रबाहु स्वामीना शिष्य गोदासथी गोदासगण, आर्य महागिरिना शिष्य उत्तर अने बलिस्सहथी बलिस्सहगण, आर्य सुहस्तिसूरिना शिष्योथी उद्देह, चारण, वेसवाडिय, मानव, अने कोटिकगण (कोटिकगच्छ) नी स्थापना थई. आ दरेक गणोनां भिन्न भिन्न कुळ अने शाखाओ पण व्यवस्थित करवामां आव्यां, जे दरेक, निम्रन्थ गच्छनां नामांतरो छे.
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