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________________ श्री तपगच्छ " पुलाक-चकुश--कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निम्रन्थाः "। -(तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, अ० ९, सूत्र ४८ ) १. पुलाक निर्ग्रन्थ-सामान्यतया आगमानुसारी साधु. २. बकुश निर्ग्रन्थ-शिथिलाचारी छतां अखंडित व्रतधर साधु. ३. कुशील निर्ग्रन्थ-शुद्ध साधुतागां आगळ वधनार, कारणे उत्तरगुणनो विराधक, सञ्चलनादि कषायोदयवाळो भिक्षु. ६. दिगम्बराचार्या पण आ सूत्रने प्रमाण माने छे. तेओ स्वीकारे छे के दिगंबर साधु पांच प्रकारना छे. पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ, तथा स्नातक, ( तत्त्वार्थसूत्र, अ० ९, सूत्र ४६) तेओ आ पांच भेदोना विवरणमां जणावे छे केसंनिरस्तकर्माणोंऽतर्मुहूर्तकेवलज्ञानदर्शनप्रापिणो निर्ग्रन्थाः। बाह्य अने आंतर ग्रन्थीथी रहित (शुक्ललेश्यायुक्त ) होय ते निर्ग्रन्थ, आवे। शब्दार्थ त्यारे ज करी शकाय के ज्यारे ते अंतर्मुहर्तमां केवलज्ञान पामवानी स्थीतिए हाय. आ कथनथी नागा एटले निर्मन्थ एवो जे अर्थ करवामां आवे छे तेनी पोकळता व्यक्त थाय छे. प्रकृष्टाप्रकृष्टमध्यानां निर्ग्रन्थाभावः+न वा+ पांच प्रकारना निर्ग्रन्थोमा तरतमता छे एटले तेने निर्ग्रन्थ न कहेवा जाइए आ मत ठीक नथी. तरतमताना सद्भावे जेम ब्राह्मणत्व निषेधातुं नथी तेम निन्थपणा माटे पण समजबु. संग्रव्यवहारापेक्षत्वात् संग्रहनय अने व्यवहारनयनी अपेक्षाए ते भेदो उचित छे. _अविविक्तपरिग्रहाः....प्रतिसेवनाकुशीला: अत्यक्त परिग्रह ( वस्त्र, पात्र, उपकरण बगेरे युक्त तो होय किन्तु मृ युक्त होय तो पण ते) त्रीजी कोटीनो निर्ग्रन्थ छे प्रतिसेवनाकुशीला: द्वयोः संयमयोः । दशपूर्वधराः ॥ जे सामायिक छेदोपस्थापनीय चारित्रवाळा होय छे, दशपूर्वधर होय छे. उपकरणाभिषक्तचित्तो विविधविचित्रपरिग्रहयुक्तः बहुविशेषयुक्तापकरणकांक्षी ते निर्धन्य वस्त्र, पात्र वगेरे उपकरणोमां दिलवाळो होय छे, विविध अने विचित्र वस्त्रादि सहित होय छे अने अधिक उपकरणोनी आकांक्षावाळो होय छे. लिंगं द्विविधं-द्रव्यलिंग भावलिंगं च । भावलिंग प्रतीत्य सर्व निम्रन्थाः लिंगिनो भवन्ति । द्रव्यलिंगं प्रतीत्य भाज्याः। साधलिंग बे प्रकारच् छे : द्रव्यलिंग-साधुवेष अने भावलिंग- चारित्र. चारित्रनी अपेक्षाए पांचे नियो लिंगी छे. द्रव्यलिंगनी अपेक्षाए तेमना अनेक भेद छे. यदि नग्नता" ए ज द्रव्यलिंग होय तो तेना पण एक ज भेद थात. किन्तु अनेक भेदे| होवानं सूचित कर्यु ते जैन साधुना वेशनी भिन्नताने लीधे छे. -तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९-४६,४७. पृष्ठ ३५८, ३५९ उपरना पाठामा उपकरणानुं स्पष्ट विधान होवा छतां दिगम्बरो शा माटे नम्रताना आग्रह करता हशे? यदि तेओने ए आग्रह इष्ट होय तो तेमणे निर्ग्रन्थिनी (संघना बीजाअंगरूप) पद मानवू नका, छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003643
Book TitleTapagaccha Shraman Vansh Vruksh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantilal Chottalal Shah
PublisherJayantilal Chottalal Shah
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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