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________________ ८७ अर्थ-वट का वृक्ष गुरु का रूप धारण कर सुन्दर स्वर में अक्षरों को पढ़ा रहा था। पढ़ने वाले थे स्वयं उसके आश्रम में रहने वाले पक्षिगण। वुक्कड़ कक्का कह रहा था, वाउल किक्कि, मोर केक्कइ और प्रिय कोयल कोक्कह, पपीहा कुंका कह रहा था। ___ मैं इसे केवल रूपक ही नहीं मानता, अवश्य ही गाँव का उपाध्याय इन पक्षियों के माध्यम से बालकों को बारहखड़ी का ज्ञान कराता होगा । वह ज्ञान कितना क्रियात्मक, सहज और स्वाभाविक होगा, यह स्पष्ट ही है। आज का शिक्षा मनोविज्ञान ऐसे उपायों को बालकों के लिए रुचिकर मानता है। इनमें बालकों का मन लगता है और वे इसे सहज ही अवगम कर पाते हैं। दूसरी ओर, संस्कृत की 'अ इ उन्' रटाने की कला थी, जो शुष्क थी और कष्टदायक भी । वह बालमस्तिष्क के समीप कभी नहीं रही । उसका जो परिणाम होना था, हुआ । सहस्रशः निरक्षरों के रूपमें भारत का नक्शा बदलता गया। बाल मन के सन्निकट होना ही शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा गुण है । जैन उपाध्यायों ने उसे खोजा था, किन्तु साम्प्रदायिक विद्वेषों के कारण वह सार्वभौम न बन पाई। पाश्चात्य शिक्षाशास्त्री उसे भारत लाये हैं और आज वह पनप रही है । उसे पश्चिम की देन ही कहा जाता है । हम बाहर को अपनाते हैं, भीतर को नहीं-अपने को नहीं । जैन संघ होनहार बालकों को कम उम्र में दीक्षा देकर साधु बना देते थे । साधु बालक की शिक्षा संघ में ही प्रारंभ होती थी। उसका माध्यम भी बारहखड़ी ही थीलोकभाषा के स्वर-व्यंजन । इस भाँति वह बालक शीघ्र व्युत्पन्न होकर बड़े-बड़े ग्रन्थों का पारायण कर पाता था। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्री मेरुनन्दन उपाध्याय केवल सात वर्ष की आयु में दीक्षित हुए थे। वे एक ओर श्रेष्ठ कवि बने तो दूसरी ओर दार्शनिक विद्वान् । इन विद्वानों के सिद्धान्त, तर्क और दर्शन के ग्रंथ भले ही संस्कृत में मिलते हों, किन्तु उन्होंने भावपरक काव्यरचना अपनी मातृभाषा में ही की। इसका कारण था कि उनके भाव उसी भाषा में अभिव्यक्त होने को अकुलाते थे, जिसमें उन्होंने अक्षरारम्भ किया था। ऐसे विद्वान् और अनुभूति-परक साधु वे होते थे, जिन्होंने पाँच से आठ वर्ष तक की आयु में दीक्षा ली थी। बालक के विद्यारम्भ के लिए, पाँच वर्ष की आयु एक ऐसी आयु थी, जिसे जैन, बौद्ध और हिन्दुओं ने ही नहीं, अपितु मुस्लिम धर्म ने भी स्वीकार किया है। डॉ. आल्टेकर ने 'J.A. S. B, 1935, P. 249' का उद्धरण देते हुए लिखा है२“The Bismilla khani ceremony, which the Muslims performed in the 5th year, or to be more corrcet, on 4th day of the fourth month of the fifth year. It was performed १. देखिए मेरा ग्रन्थ-हिन्दी जैनभक्ति काव्य और कवि, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, पृष्ठ ४२. २. Dr. A. S. Altekar, Education in Ancient India, पृष्ठ २६६, पादटिप्पड़-२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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