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________________ यह चौरासी सिद्धों के लिए नहीं है । यदि ऐसा होता तो 'ओम् नम: सिद्धेभ्यः' कहना पड़ता। यह ब्राह्मणों का भी प्रयोग नहीं है। ब्राह्मणों के त्रिदेवों को सिद्ध नहीं कहा जाता। बौद्ध और जैन ही अपने सम्प्रदाय-प्रवर्तक को सिद्ध कहते हैं। इसलिए 'ॐ नमः सिद्धम्' अथवा 'ओनामासीधम्' का इतना व्यापक प्रयोग श्रमण धर्म के प्रभाव की व्यापकता को बतलाता है।"१ ___ हिन्दी युग के प्रारम्भ में बालक को बारहखड़ी सिखाने के पहिले ओंकार का मंगलपाठ भी चल पड़ा था । जैन ग्रन्थों में इसके अनेक सूत्र पकड़े जा सकते हैं । रल्ह ने 'जिणदत्तचरिउ' में लिखा है कि जिणदत्त ने सर्वप्रथम अपने मन में ओंकार का ध्यान किया फिर विद्या पढ़ना आरम्भ की। रल्ह ने लिखा है "ओंकार लयउ मणु जाणि । लक्खणु छंदु तक्क परिवाणि । मुणि व्याकरण विरति कउ जाणु भरह रमायणु महापुराणु ॥"२ अर्थ-सर्वप्रथम उसने ओंकार शब्द को मन में माना, अर्थात् ओंकार पर मन टिकाया। फिर, लक्षण, छन्द और तर्कशास्त्र को प्रमाणित किया-प्रामाणिक रूप से पढ़ा, पल्लवग्राही नहीं रहा। आगे व्याकरण, वैराग्यपरक कथाएँ, भरत (नाट्यशास्त्र), रामायण और महापुराण पढ़े । महावीर और बुद्ध ने लोकभाषा पर बल दिया। जैन उपाध्याय बालक का विद्यारम्भ लोकभाषा के स्वर-व्यंजनों से ही करते थे, 'अ, इ, उ, न्' से नहीं। उन्होंने बारहखड़ी विद्या का आविष्कार किया था, जो सहज थी और स्वाभाविक भी । उनके पढ़ाने का ढंग भी कष्टदायक नहीं था। बालक उसे आसानी से अवगम कर लेता था । स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' में एक रूपक आया है। वन जाते समय राम को एक विशाल वट-वृक्ष दिखाई पड़ा और उसकी तुलना उन्होंने ग्रामीण उपाध्याय से की "गुरुवेसु करेवि सुन्दर सराहं णं विहय पढावइ अक्खराई वुक्कण किसलय कक्का रवन्ति वाउलि-विहंग किक्की भणन्ति वन कुक्कुड़ कुक्क आयरन्ति अण्ण विकलावि केक्कह चवन्ति पियमाह वियड कौक्कड लवन्ति कंका वप्पीह समुल्लवन्ति सो तरवर गुणगणदरसमाणु फलवत्त वन्तु अक्खर खिहाणु ॥"3 १. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, बौद्ध सिद्ध साहित्य (निबन्ध), सम्मेलन पहिवा, भाग, ___संख्या १, शक संवत् १८८७, पृष्ठ ४. २. रल्ह, जिणदत्तचरिउ, शोध संस्थान, जयपुर, पद्य ६४ वाँ, पृष्ठ २६. ३. स्वयम्भू, पउमचरिउ, II, कड़वक १५, पृष्ठ ६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003641
Book TitleBrahmi Vishwa ki Mool Lipi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages156
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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